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उपसंहार
नैतिक जीवन का अन्तिम सत्य नहीं माना जा सकता । मनुष्य केवल भौतिक-आवश्यकताओं की पूर्ति के बल पर नहीं जी सकता। ईसा ने ठीक ही कहा था कि केवल रोटी पर्याप्त नहीं है । इसका यह अर्थ नहीं है कि वह बिना रोटी के जी सकता है। रोटी के बिना तो नहीं जी सकता, लेकिन अकेली रोटी से भी नहीं जी सकता है। रोटी के बिना असम्भव है और अकेली रोटी पर या रोटी के लिए जीना व्यर्थ है। जैसे पौधों के लिए जड़ें होती हैं, वैसे ही मनुष्य के लिए रोटी या भौतिक वस्तुएँ हैं। जड़ें स्वयं अपने लिए नहीं हैं, वे फूलों और फलों के लिए हैं। फूल और फल न आएं, तो उनका होना निरर्थक है । यद्यपि फूल और फल उनके बिना नहीं आ सकते हैं, तब भी फूल और फल उनके लिए नहीं हैं। जीवन में निम्न आवश्यक है, उच्च के लिए; लेकिन उच्च को होने में ही वह सार्थक है । मनुष्य को रोटी या भौतिक वस्तुओं की जरूरत है, ताकि वह जी सके और जीवन के सत्य और सन्दर्भ की भूख को भी तृप्त कर सके। रोटी, रोटी से भी बड़ी भूखों के लिए आवश्यक है, लेकिन यदि कोई बड़ी भूख नहीं है, तो रोटी व्यर्थ हो जाती है। रोटी, रोटी के ही लिए नहीं है । अपने-आप में उसका कोई मूल्य और अर्थ नहीं है । उसका अर्थ है-उसके अतिक्रमण में । कोई जीवन-मूल्य, जो कि उसके पार निकल जाता है, उसमें ही उसका अर्थ है । 13
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वस्तुतः, हमने भौतिक मूल्यों की पूर्ति को ही अन्तिम मानकर बहुत बड़ी गलती की है । भौतिक-पूर्ति अन्तिम नहीं है, यदि वही अन्तिम होती, तो आज मनुष्य में उच्च मूल्यों का विकास पहले की अपेक्षा अधिक होना चाहिए था, क्योंकि वर्त्तमान युग में हमारी भौतिक सुख-सुविधाएँ पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ी हैं, फिर भी उच्च मूल्यों का विकास उस परिमाण में नहीं हो पाया है। आर्थिक विकास और व्यवस्था होने पर भी आज का सम्पन्न मनुष्य उतना ही अर्थ-लोलुप है, जितना पहले था। वैज्ञानिक विकास अपने चरम शिखर पर है, फिर भी आज का विज्ञानजीवी मनुष्य उतना ही आक्रामक है, जितना पहले था। शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा होने पर भी आज का शिक्षित मनुष्य उतना ही स्वार्थी है, जितना पहले था। आर्थिक, वैज्ञानिक और शैक्षणिक - विकास ने मनुष्य के व्यवहार को बदला है, पर उसी को बदला है, जो उनसे सम्बन्धित है। मनुष्य में ऐसी अनेक मूल प्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें ये नहीं बदल सकते हैं। क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ, भय, शोक, घृणा, कामवासना, कलह-ये मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ हैं। आर्थिक अभाव तथा अज्ञान के कारण जो सामाजिक-दोष उत्पन्न होते हैं, वे आर्थिक और शैक्षणिक - विकास से मिट जाते हैं, किन्तु मूल प्रवृत्तियों से उत्पन्न दोष उनसे नहीं मिटते । मूल प्रवृत्तियों का नियंत्रण या शोधन आध्यात्मिकता से ही हो सकता है, इसलिए समाज में उसका अस्तित्व अनिवार्य है । 14 जो विचारक यह मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान की सहायता से मनुष्य की सभी
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