Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 550
________________ 548 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन आवश्यकताओं की पूर्ति कर दी जाएगी और इस संसार में एक स्वर्ग का अवतरण हो सकेगा, वे वस्तुतः भ्रान्ति में हैं। वस्तुतः, मनुष्य के लिए जिस आनन्द और शान्तिमय जीवन की अपेक्षा है, वह मात्र भोगों की पूर्ति में विकसित नहीं हो सकता। जिन्हें सन्तुष्टि के अल्प साधन उपलब्ध हैं, वे अधिक आनन्दित हैं, अपेक्षाकृत उनके, जो भौतिक सुख-सुविधाओं की विपुलता के बावजूद उतने आनन्दित नहीं हैं। आज अमेरिका भौतिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से सम्पन्न है, पर उसके नागरिक मानसिक-तनावों से सर्वाधिक पीड़ित हैं। आज का मानव जिस भयावह एवं तनावपूर्ण स्थिति में है, उसका कारण साधनों का अभाव नहीं है, वरन् उनके उपयोग की योग्यता एवं मनोवृत्ति है। यह ठीक है कि वैज्ञानिक-उपलब्धियाँ मनुष्य को सुख और सुविधाएँ प्रदान कर सकती हैं, लेकिन यह इसी बात पर निर्भर है कि मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या है। विज्ञान में मानव को जहाँ एक ओर सुखी और सम्पन्न करने की क्षमता है, वहीं दूसरी ओर वह उसका विनाश भी कर सकता है। यह तो उसके उपयोग करनेवालों पर निर्भर है कि वे उसका कैसा उपयोग करते हैं और यह बात उनकी जीवनदृष्टि पर ही आधारित होगी। विज्ञान आध्यात्मिक एवं उच्च मानवीय-मूल्यों से समन्वित होकर ही मनुष्य का कल्याण साध सकता है, अन्यथा वह उसका संहारक ही सिद्ध होगा, अतः आवश्यकता यह है कि मनुष्य में आध्यात्मिकजीवन-दृष्टि एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा जाग्रत की जाए। आज यह धारणा बल पकड़ रही है कि नैतिक एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा रखनेवाला मनुष्य सुख-सुविधा की दृष्टि से घाटे में रहता है, इसीलिए नैतिकता एवं आध्यात्मिकजीवन के प्रति मनुष्य में सहज आकर्षण नहीं है। जीवन की आवश्यकताएँ जितनी अधिक होती हैं, उतनी ही सामाजिक-उन्नति होती है, इस मान्यता ने समाज में भोग की स्पर्धा खड़ी कर दी है। अब कोई भी व्यक्ति इस दौड़ में पीछे रहना नहीं चाहता। हम भ्रष्टाचार करनेवाले को दोष देते हैं, पर कितना आश्चर्य है कि भ्रष्टाचार की प्ररेणा जहाँ से फूटती है, उस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता । नैतिक-मूल्यों की पुनः प्रतिस्थापना के लिए आवश्यक है कि जीवन की आवश्यकताओं को कम करने, सादा-सरल जीवन जीने एवं त्याग व निःस्वार्थवृत्ति को राष्ट्रीय-संस्कृति का अभिन्न अंग माना जाए। समाज की एक मान्यताथी-चाहे जितने कष्ट आ जाएँ, पर सत्य और प्रामाणिकता अखण्ड रहनी चाहिए। इस मान्यता ने सच्चे और प्रामाणिक लोगों की सृष्टि की। आज समाज की मान्यता में परिवर्तन हुआ है। जन-मानस बड़ी तेजी से ऐसा बनता जा रहा है कि सत्य और प्रामाणिकता खंडित हों, तो भले हों, सुख-सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए। इस मान्यता ने सत्य और प्रामाणिकता का मूल्य कम कर दिया है। 16 यदि हम नैतिक-मूल्यों के ह्रास को रोकना चाहते हैं, तो हमें भौतिक-मूल्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक-मूल्यों को भी स्वीकार करना होगा और एक ऐसी जीवन-दृष्टि का निर्माण करना होगा, जो मनुष्य में उच्च मूल्यों के विकास के साथ ही मानव-जाति को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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