Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 533
________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 531 स्थिरतारूप कुंभक की अवस्था होती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक-प्राणायाम है। इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति सदाचरण या चरित्र को अत्यधिक महत्व देता है। वह आचरण का मूल्य शरीर की अपेक्षा भी अधिक मानता है। इस अवस्था में होने वाला आत्मबोध दीपक की ज्योति के समान होता है। यहाँ नैतिक-विकास होते हुए भी आध्यात्मिक-दृष्टि का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है, अतः इस अवस्था से पतन की संभावना बनी रहती है। 5. स्थिरादृष्टि और प्रत्याहार-पूर्वोक्त चार दृष्टियों में अभिनिवेश या आसक्ति विद्यमान रहती है, अतः व्यक्ति को सत्य का यथार्थ बोध नहीं होता। उपर्युक्त अवस्थाओं तक सत्यका मान्यता के रूप में ग्रहण होता है, सत्य का साक्षात्कार नहीं होता, लेकिन इस अवस्था में आसक्ति या राग के अनुपस्थित होने से सत्य का यथार्थ रूप में बोध हो जाता है। तुलनात्मक-दृष्टि से यह अवस्था प्रत्याहार के समान है। जिस प्रकार प्रत्याहार में विषयविकार का परित्याग होकर आत्मा विषायोन्मुख न होते हुए स्वस्वरूप की ओर उन्मुख होती है, उसी प्रकार इसअवस्था में भी विषयविकारों का त्याग होकर आत्मास्वभावदशा की ओर उन्मुख होती है। इस अवस्था में व्यक्ति का आचरण सामान्यतया निर्दोष होता है। इस अवस्था में होने वाले तत्त्व-बोध की तुलना रत्न की प्रभा से की जाती है, जो निर्दोष तथा स्थाई होती है। 6. कान्तादृष्टि और धारणा- कान्तादृष्टि योग के धारणा अंग के समान है। जिस प्रकार धारणा में चित्त की स्थिरता होती है, उसी प्रकार इस अवस्था में भी चित्तवृत्ति स्थिर होती है। उसमें चंचलता का अभाव होता है। इस अवस्था में व्यक्ति में सद्-असत् का विवेक पूर्णतया स्पष्ट होता है। उसमें किंकर्त्तव्य के विषय में कोई अनिश्चयात्मक स्थिति नहीं होती है। आचरण पूर्णतया शुद्ध होता है। इस अवस्था में तत्त्वबोध तारे की प्रभा के समान एकसा स्पष्ट और स्थिर होता है। 7. प्रभादृष्टि और ध्यान-प्रभादृष्टि की तुलना ध्यान नामक सातवें योगांग से की जा सकती है। धारणा में चित्तवृत्ति की स्थिरता एकदेशीय और अल्पकालिक होती है, जबकि ध्यान में चित्तवृत्ति की स्थिरता प्रभावरूप एवं दीर्घकालिक होती है। इस अवस्था में चित्त पूर्णतया शांत होता है। पातंजल योग - दर्शन की परिभाषा में यह प्रशांतवाहिता की अवस्था है। इस अवस्था में रागद्वेषात्मक-वृत्तियों का पूर्णतया अभाव होता है। इस अवस्था में होनेवाला तत्त्वबोध सूर्य की प्रभा के समान दीर्घकालिक और अति स्पष्ट होता है और कर्ममल क्षीणप्राय हो जाते हैं। 8. परादृष्टि और समाधि-परादृष्टि की तुलना योग के आठवें अंग समाधि से की गई है। इस अवस्था में चित्तवृत्तियाँ पूर्णतया आत्मकेन्द्रित होती हैं। विकल्प, विचार आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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