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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
भी एक नया आध्यात्मिक-स्वरूप प्रदान किया गया। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार, बौद्ध-दर्शन में भी सच्चे स्नान काअर्थमन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है।' न केवल जैन और बौद्ध-परम्परा में वरन् वैदिकपरम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के विकास में निहित है।
इसी प्रकार, ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति भी एक नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा संयम ही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि प्रतिमास सहस्रों गायों का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य-रूप से दान नहीं करता, वरन् संयम का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। धम्मपद में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि सौ वर्षों तक हजारों की दक्षिणा देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाए और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करे, तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ।' इस प्रकार, समालोच्य आचार-दर्शन ने तत्कालीन नैतिक-मान्यताओं को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक-स्वरूप दिया, साथ ही नैतिकता का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था, उसे आध्यात्मिक-संस्पर्श द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के नैतिक-चिन्तन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इन आचार-दर्शनों ने केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान ही प्रस्तुत नहीं किया, वरन उनमें वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान की भी सामर्थ्य है, अतः यह विचार अपेक्षित है कि युगीन-परिस्थितियों में समालोच्य आचार-दर्शनों का और विशेष रूप से जैन-दर्शन का क्या स्थान हो सकता है ? समकालीन परिस्थितियों में जैन आचार-दर्शन का मूल्यांकन
जैन आचार-दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान किया है, वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में भी पूर्णतया सक्षम है। प्राचीन युग हो या वर्तमान युग, मानव-जीवन की समस्याएँ सभी युगों में लगभग समान रही हैं। समग्र समस्याएँ विषमताजनित ही हैं। वस्तुतः, विषमताही समस्या है और समता ही समाधान है। ये विषमताएँ अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। प्रमुख रूप से वर्तमान मानव-जीवन की विषमताएँ चार हैं - 1. सामाजिक-वैषम्य, 2. आर्थिक-वैषम्य, 3. वैचारिक-वैषम्य, 4. मानसिक-वैषम्य । क्या जैन आचार-दर्शन इन विषमताओं का निराकरण कर समत्व की संस्थापना करने में समर्थ है ? नीचे हम प्रत्येक प्रकार की विषमताओं के कारणों का विश्लेषण कर जैन-दर्शन द्वारा प्रस्तुत उनके समाधानों पर विचार करेंगे।
1. सामाजिक-विषमता-चेतन जगत् के अन्य प्राणियों के साथ जीवन जीना
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