Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

Previous | Next

Page 541
________________ उपसंहार 539 हे ब्राह्मण! ये तीन अग्नियाँ त्याग करने, परिवर्जन करने के योग्य हैं, इनका सेवन नहीं करना चाहिए। वे कौन-सी हैं ? कामाग्नि, द्वेषाग्नि और मोहाग्नि। जो मनुष्य कामाभिभूत होता है, वह काया, वाचा-मनसा कुकर्म करता है और उससे मरणोत्तर दुर्गति पाता है। इसी प्रकार, द्वेष एवं मोह से अभिभूतभी काया, वाचा-मनसा कुकर्म करके दुर्गति को पाता है, इसलिए ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्तन के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिए। हे ब्राह्मण! इन तीन अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भलीभाँति सुख से करें, ये अग्नियाँ कौनसी हैं ? आह्वनीयानि (आहुनेय्यग्गि), गार्हपत्यानि (गहपत्तग्गि) और दक्षिणाग्नि (दक्खिणाय्यग्नि) । माँ-बाप को आह्वनीयाग्नि समझना चाहिए और सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिए। पत्नी और बच्चे, दास तथा कर्मकार को गार्हपत्याग्नि समझना चाहिए और आदरपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए और श्रमण ब्राह्मणों को दक्षिणाग्निसमझना चाहिए और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। हे ब्राह्मण! यह लकड़ियों की अग्नि कभी जलानी पड़ती है, कभी उसकी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझाना पड़ता है। इस प्रकार, बुद्ध ने भी हिंसक यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक-स्वरूप को प्रकट किया। इतना ही नहीं, उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक-जीवन से बेकारी का नाश करना बताया। न केवल जैन एवं बौद्धपरम्परा में, वरन् गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गई और यज्ञ के सम्बन्ध में उसने भी सामाजिक एवं आध्यात्मिक-दृष्टि से विवेचना की। सामाजिक-सन्दर्भ में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की सेवा करना गीता में यज्ञ का सामाजिक-पहलू था, दूसरी ओर गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक-स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता है कियोगीजन संयमरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं, या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु, जो प्राण कहलाता है, उसके 'संकुचित होने' 'फैलने' आदि कर्मों को ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्मसंयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। आत्मविषयक संयम का नाम आत्मसंयम है, वही यहाँ योगाग्नि है। घृतादि चिकनी वस्तु से प्रज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेक-विज्ञान से उज्ज्वलता को प्राप्त हुई (धारणा-ध्यान समाधिरूप) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार, जैन आचार-दर्शन में यज्ञ के जिस आध्यात्मिकस्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका अनुमोदन बौद्ध-परम्परा और गीता में भी है। तत्कालीन अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों के प्रति नया दृष्टिकोण-जैनविचारकों ने अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की। बाह्य-शौच या स्नान, जो कि उस समयधर्म और नैतिक-जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568