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उपसंहार
वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं। यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है, तो एक ओर संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है । इसी से सामाजिक-जीवन में आर्थिक विषमता का बीज पड़ता है। एक ओर संग्रह बढ़ता है, तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ती है, परिणामस्वरूप आर्थिक विषमता बढ़ती जाती है।
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आर्थिक-वैषम्य के मूल में संग्रह - भावना ही अधिक है। यह कहा जाता है कि अभाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन्न होती है, लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है । स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है और शायद विज्ञान हमें इस दिशा में सहयोग भी दे सकता है, लेकिन कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं । उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं, गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु अमीरी ने उसे समस्या बना दिया है। गड्ढा स्वयं में कोई बहुत चीज नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाइयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिए हैं। पहाड़ टूटेंगे, तो गड्ढे अपने-आप भर जाएंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा, तो गरीबी अपने-आप दूर हो जाएगी। 12 वस्तुतः, आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो । परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिकवैषम्य समाप्त हो सकता है। जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, . आर्थिक समानता नहीं आ सकती ।
आचार
आर्थिक-वैषम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव है और जैन-दर्शन अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा इस आर्थिक-वैषम्य के निराकरण का प्रयास करता है। जैन र-दर्शन में गृहस्थ-जीवन के लिए भी जिस परिग्रह के सीमांकन का विधान है, वह आर्थिक-वैषम्य के निराकरण का एक प्रमुख साधन हो सकता है। आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद की चर्चा करते हैं, उसका दिशा-संकेत महावीर ने व्रत-व्यवस्था में किया था । आर्थिक विषमता का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना के द्वारा ही सम्भव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता लाना चाहते हैं, तो हमें व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारित करनी ही होगी। परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिकजीवन में समत्व का सृजन कर सकता है। जैन दर्शन का अपरिग्रह - सिद्धान्त इस सम्बन्ध में पर्याप्त सहायक है । वर्त्तमान युग में मार्क्स ने आर्थिक विषमता को दूर करने का जो सिद्धान्त साम्यवादी - समाज की रचना के रूप में प्रस्तुत किया, वह यद्यपि आर्थिक विषमताओं के निराकरण का एक महत्वपूर्ण साधन है, लेकिन उसकी मूलभूत कमी यह है कि वह मानवसमाज पर ऊपर से थोपा जाता है, उसके अन्तर से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य-दबावों से वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार केवल कानून के बल पर लाया गया आर्थिक-साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन नहीं करता है । आवश्यक
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