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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
राग या आसक्ति होगी, तो चित्त - विकल्प होंगे और जब चित्त - विकल्प होंगे, तो मानसिकतनाव होगा और जब मानसिक तनाव होंगे, तो समाधि सम्भव नहीं होगी। समाधि के लिए चित्त का निर्विकल्प या निरुद्ध होना आवश्यक है। योगदर्शन में चित्त की जो पाँच अवस्थाएँ बताई गई हैं, वे क्रमशः साधना के विकास क्रम की ही सूचक हैं । चित्त की ये पाँच अवस्थाएँ निम्न हैं
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1. मूढ़ - यह चित्त की तमोगुण प्रधान जड़ता की अवस्था है। इसमें अज्ञान और आलस्य की प्रमुखता रहती है। आत्माभिरुचि और ज्ञानाभिरुचि का अभाव होता है। यह अवस्था जैनधर्म के मिथ्यात्व - गुणस्थान और बौद्धधर्म के अंधपृथक्जन के समान है। 2. क्षिप्त - यह चित्त की रजोगुण प्रधान अवस्था है। इसमें रजोगुण की प्रमुखता के कारण चित्त में चंचलता बनी रहती है। सांसारिक विषय-वासनाओं में अभिरुचि होने के कारण मन केन्द्रित नहीं रहता । इस अवस्था में व्यक्ति अनेकचित्त होता है । वह वासनाओं दास होता है और अपनी तीव्र आकांक्षाओं के कारण दुःखी बना रहता है, यद्यपि उसमें सत्वगुण का संयोग होने से कभी-कभी तत्त्व - जिज्ञासा और संसार की दुःखमयता का
भास होने लगता है। यह अवस्था भी मिथ्यात्व - गुणस्थान से ही तुलनीय है, किन्तु यह उस व्यक्ति की अवस्था है, जो सम्यक्त्व का स्पर्श कर मिथ्यात्व में गिरा है, अतः किसी सीमा तक इसे सास्वादन और मिश्र - गुणस्थान से भी तुलनीय माना जा सकता है।
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3. विक्षिप्त - इसमें सत्वगुण की प्रधानता होती है, किन्तु रजोगुण और तमोगुण की उपस्थिति के कारण सत्वगुण का इनसे संघर्ष चलता रहता है। यह शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है। सत्वगुण तमोगुण और रजोगुण, अर्थात् प्रमाद और वासना को दबाने का प्रयत्न तो करता है, किन्तु वे भी अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं । चित्त अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करता है, किन्तु प्रमाद और वासना के तत्त्व उसे विक्षोभित करते रहते हैं। इस अवस्था को जैन- परम्परा के अनुसार अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है, यद्यपि सत्वगुण की प्रधानता होने से यह दशा पाँचवें और छठवें गुणस्थानों से भी कुछ निकटता रखती है। इसकी तुलना बौद्ध परम्परा की स्रोतापन्न - भूमि से भी की जा सकती है।
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4. एकाग्र - यह चित्त की एकाग्रता की अवस्था है। वस्तुतः, यह पूर्ण आत्मचेतना या जागरूकता की अवस्था है । इसमें चित्त का विषयाभिमुख हो इधर-उधर भटकना समाप्त हो जाता है। व्यक्ति की इच्छाएँ और आकांक्षाएँ क्षीण हो जाती हैं और चित्तवृत्ति स्थिर हो जाती है। इसकी तुलना जैन- परम्परा के सातवें से बारहवें गुणस्थान तक की भूमिकाओं से की जा सकती है।
5. निरुद्ध - चित्तवृत्तियों के निरुद्ध हो जाने का अर्थ है - चेतनापूर्ण निर्विकल्पदशा
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