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भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
योगवसिष्ठ में जो चौदह भूमिकाएँ हैं, उनमें सात का सम्बन्ध अज्ञान से और सात
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का सम्बन्ध ज्ञान से है । अज्ञान की सात भूमिकाएँ निम्न हैं• यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है । यह वनस्पति जगत् की
1. बीज जाग्रत
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अवस्था है।
2. जाग्रत - इसमें अहं और ममत्व का अत्यल्प विकास होता है। यह पशुजगत् की अवस्था है।
3. महाजाग्रत – इस अवस्था में अहं और ममत्व पूर्ण विकसित हो जाते हैं। यह आत्मचेतना की अवस्था है। यह अवस्था मनुष्य - जगत् से सम्बन्धित है।
4. जाग्रत स्वप्न - यह मनोकल्पना की अवस्था है। इसे आधुनिक मनोविज्ञान में दिवास्वप्न की अवस्था कह सकते हैं। यह व्यक्ति की भ्रमयुक्त अवस्था है ।
5. स्वप्न - यह स्वप्न - चेतना की अवस्था है। यह निद्रित अवस्था की अनुभूतियों को निद्रा के पश्चात् जानना है ।
6. स्वप्न जाग्रत - यह स्वप्निल चेतना है। स्वप्न देखती हुई जो चेतना है, वह स्वप्न जाग्रत है। यह स्वप्न-दशा का बोध है ।
7. सुषुप्ति - यह स्वप्नरहित निद्रा की अवस्था है, जहाँ आत्मचेतनता की सत्ता होते हुए भी जड़ता की स्थिति है।
ज्ञान की सात भूमिकाएँ निम्न हैं
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1. शुभेच्छा - यह कल्याण-कामना है ।
2. विचारणा - यह सदाचार में प्रवृत्ति का निर्णय है ।
3. तनुमानसा - यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था है ।
4. सत्वापत्ति - शुद्धात्म स्वरूप में अवस्थिति है।
5. असंसक्ति - यह आसक्ति के विनाश की अवस्था है। यह राग-भाव का नाश होने से सन्तोषरूपी निरतिशय आनन्द की अनुभूति की अवस्था है।
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6. पदार्थाभावनी – यह भोगेच्छा के पूर्णतः विनाश की अवस्था है, इसमें कोई भी चाह या अपेक्षा नहीं रहती है, केवल देह - यात्रा दूसरों के प्रयत्न को लेकर चलती है । . तूर्यगा- यह देहातीत विशुद्ध आत्मरमण की अवस्था है। इसे मुक्तावस्था भी कहा जा सकता है।
7.
योगदर्शन में आध्यात्मिक विकासक्रम
योग-साधना का अन्तिम लक्ष्य चित्तवृत्ति निरोध है। योगदर्शन में योग की परिभाषा है— ‘योगः चित्तवृत्तिनिरोधः’। योगदर्शन में चित्तवृत्ति निरोध को इसलिए साध्य माना गया कि सारे दुःखों का मूल चित्त - विकल्प हैं। चित्त - विकल्प राग या आसक्तिजनित हैं । जब
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