Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 529
________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास दमन करते हुए विकास की इस अवस्था को प्राप्त करता है, तो वे दमित तमस् और रजस् अवसर पाकर पुनः उस पर हावी हो जाते हैं। 12. क्षीणमोह-गुणस्थान विकास की वह कक्षा है, जिसमें साधक पूर्वावस्थाओं hat तथा रजस्का पूर्णतया उन्मूलन कर देता है। यह विशुद्ध सत्वगुण की अवस्था है। यहाँ आकर सत्व का रजस् और तमस् से चलने वाला संघर्ष समाप्त हो जाता है। साधक को अब सत्वरूपी उस साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, अतः वह ठीक उसी प्रकार सत्वगुण का भी परित्याग कर देता है, जैसे काटे के द्वारा काँटा निकाल लेने पर उस कांटा निकालने वाले काँटे का भी परित्याग कर दिया जाता है। यहाँ नैतिक- पूर्णता प्राप्त हो जाने से विकास एवं पतन के कारणभूत तीनों गुणों का साधनरूपी स्थान समाप्त हो जाता है । 13. सयोगीकेवली- गुणस्थान आत्मतत्त्व की दृष्टि से त्रिगुणातीत अवस्था है यद्यपि शरीर के रूप में इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है, तथापि इस अवस्था में त्रिगुणात्मक - शरीर में रहते हुए भी आत्मा उनसे प्रभावित नहीं होती । वस्तुतः, अब यह त्रिगुण भी साधन के रूप में संघर्ष की दशा में न रहकर विभाव से स्वभाव बन जाते हैं, साधना सिद्धि में परिणत हो जाती है, साधन स्वभाव बन जाता है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में, 'तब सत्व उन्नयन के द्वारा चेतना का प्रकाश या ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है और तम प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है। 54 I 14. गीता की दृष्टि से तुलना करने पर अयोगीकेवली-गुणस्थान त्रिगुणातीत और देहातीत अवस्था माना जा सकता है। जब गीता का जीवन्मुक्त साधक योग-प्रक्रिया द्वारा अपने शरीर का परित्याग करता है, तो वही अवस्था जैन- परम्परा में अयोगीकेवलीगुणस्थान कही जाती है। इस प्रकार, तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि गीता की त्रिगुणात्मक धारणा जैन- - परम्परा के गुणस्थान- सिद्धान्त के निकट है । योगवसिष्ठ और गुणस्थान - सिद्धान्त 527 - Jain Education International इस प्रसिद्ध ग्रन्थ में जैन - परम्परा के चौदह गुणस्थानों के समान ही आध्यात्मिक विकास की चौदह सीढ़ियाँ मानी गई हैं SS, जिनमें सात आध्यात्मिक विकास की अवस्था को और सात आध्यात्मिक-पतन की अवस्था को सूचित करती हैं। यदि विचारपूर्वक देखा जाए, तो जैन - परम्परा के गुणस्थान - सिद्धान्त में भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विकास का सच्चा स्वरूप अप्रमत्त-चेतना के रूप में सातवें स्थान से ही प्रारम्भ होता है। इस प्रकार, जैन- परम्परा में भी चौदह गुणस्थानों में सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की और सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक अविकास की हैं। योगवसिष्ठ की उपर्युक्त मान्यता की जैन-परम्परा से कितनी निकटता है, इसका निर्देश पं. सुखलालजी ने भी किया है। 56 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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