________________
514
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
सकृदागामी-भूमि की तुलना जैन-दर्शन के आठवें गुणस्थान से की जा सकती है। दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार, साधक इस अवस्था में बन्धन के मूल कारण राग-द्वेष-मोह का प्रहाण करता है और विकास की अग्रिम अवस्था, जिसे जैनधर्म क्षीणमोह गुणस्थान
और बौद्ध-विचार अनागामी-भूमि कहता है, में प्रविष्ट हो जाता है। जैनधर्म के अनुसार, जो साधक इन गुणस्थानों की साधनावस्था में ही आयु पूर्ण कर लेता है, वह अधिक से अधिक तीसरे जन्म में निर्वाण प्राप्त कर लेता है, जबकि बौद्धधर्म के अनुसार, सकृदागामीभूमि के साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त साधक एक बार ही पुनः संसार में जन्म ग्रहण करता है। दोनों विचारधाराओं का इस सन्दर्भ में मतैक्य है कि जो साधक इस साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अनागामी या क्षीणमोह-गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त कर उसी जन्म में अर्हत्व एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है।
____3. अनागामी-भूमि - जब साधक प्रथम स्रोतापन्न-भूमि में सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा और शीलव्रत-परामर्श-इन तीनों संयोजनों तथा सकृदागामी-भूमि में कामराग
और प्रतिध-इन दो संयोजनों को, इस प्रकार पाँच भूभागीय-संयोजनों को नष्ट कर देता है, तब वह अनागामी-भूमि को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक यदि विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ता है, तो मृत्यु के प्राप्त होने पर ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहीं से सीधे निर्वाण प्राप्त करता है।
वैसे, साधनात्मक-दिशा में आगे बढ़ने वाले साधक का कार्य इस अवस्था में यह होता है कि वह शेष पाँच उड्ढभागीय-संयोजन-1.रूप-राग, 2. अरूप-राग, 3. मान, 4. औद्धत्य और 5. अविद्या के नाश का प्रयास करे। जब साधक इन पाँचों संयोजनों का भी नाश कर देता है, तब वह विकास की अग्रिम भूमिका अर्हतावस्था को प्राप्त करता है। जो साधक इस अग्रिमभूमि को प्राप्त करने के पूर्व ही साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पाँच संयोजनों के नष्ट हो जाने पर निर्वाण प्राप्त करते हैं। उन्हें पुनः इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। अनागामी-भूमि की तुलना जैनों के क्षीणमोह-गुणस्थान से की जा सकती है, लेकिन यह तुलना अनागामी-भूमि के उस अन्तिम चरण में ही समुचित होती है, जब अनागामी-भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट हो जाने पर आगे की अर्हत्-भूमि में प्रस्थान करने की तैयारी में होता है। साधारण रूप में आठवें से बारहवें गुणस्थान तक की सभी अवस्थाएँ इस भूमि के अन्तर्गत आती हैं।
4. अर्हतावस्था- जब साधक (भिक्षु) उपर्युक्त दसों संयोजनों या बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण संयोजनों के समाप्त हो जाने के कारण वह कृतकार्य हो जाता है, अर्थात् उसे कुछ करणीय नहीं रहता, यद्यपि वह संघ की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org