Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 519
________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 517 होने से यह भूमि अभिमुखी कही जाती है। इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण होती है। चौथी, पाँचवीं और छठवीं भूमियों में अधिप्रज्ञा-शिक्षा होती है, अर्थात् प्रज्ञा का अभ्यास होता है, जो इसभूमि में पूर्णता को प्राप्त होता है। तुलना की दृष्टि से यह भूमि सूक्ष्मसम्पराय नामक बारहवें गुणस्थान की पूर्वावस्था के समान है। 8. दूरंगमा-इस भूमि में बोधिसत्वसाधक एकान्तिक-मार्ग, अर्थात् शाश्वतवाद, उच्छेदवाद आदि से बहुत दूर हो जाता है। ऐसे विचार उसके मन में उठते नहीं है। जैनपरिभाषा में यह आत्मा की पक्षातिक्रान्त-अवस्था है, संकल्पशून्यता है, साधना की पूर्णता है, जिसमें साधक को आत्म-साक्षात्कार होता है। बौद्ध-विचार के अनुसार भी इस अवस्था में बोधिसत्व की साधना पूर्ण हो जाती है। वह निर्वाण-प्राप्ति के सर्वथा योग्य हो जाता है। इस भूमि में बोधिसत्व का कार्य प्राणियों को निर्वाण-मार्ग में लगाना होता है। इस अवस्था में वह सभी पारमिताओं का पालन करता है एवं विशेष रूप से उपायकौशल्यपारमिता का अभ्यास करता है। यह भूमि जैन-विचारणा के बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण की साधना को अभिव्यक्त करती है, क्योंकि जैन-विचारणा के अनुसार भी इस अवस्था में आकर साधक निर्वाण-प्राप्ति के सर्वथा योग्य होता है। 9. अचला - संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त-विहारी-समाधि की उपलब्धि से यह भूमि अचल कहलाती है। विषयों के अभाव से चित्त संकल्पशून्य होता है और संकल्पशून्य होने से अविचल होता है, क्योंकि विचार एवं विषय ही चित्त की चंचलता के कारण होते हैं, जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णतया अभाव होता है। चित्त के संकल्पशून्य होने से इस अवस्था में तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह भूमि तथा अग्रिम साधुमति और धर्ममेधा-भूमि जैन-विचारधारा के सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती है। 10. साधुमति- इस भूमि में बोधिसत्व का हृदय सभी प्राणियों के प्रति शुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है। इस भूमि का लक्षण है-सत्वपाक, अर्थात् प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करना । इस भूमि में समाधि की विशुद्धता एवं प्रतिसंविन्मति (विश्लेषणात्मक-अनुभव करनेवाली बुद्धि) की प्रधानता होती है। इस अवस्था में बोधिसत्व में दूसरे प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। ___11.धर्ममेधा-जैसे मेघ आकाश को व्याप्त करता है, वैसे ही इस भूमि में समाधि धर्माकाश व्याप्त कर लेती है। इस भूमि में बोधिसत्व दिव्य शरीर को प्राप्त कर रत्नजड़ित दैवीय-कमल पर स्थित दिखाई देते हैं। यह भूमि जैनधर्म के तीर्थंकर के समवसरण-रचना के समान प्रतीत होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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