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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आरूढ़ साधक दसवें गुणस्थान के अन्तिम चरण में उस अवशिष्ट सूक्ष्म लोभांश को नष्ट कर इस बारहवें गुणस्थान में आते हैं और एक अन्तर्मुहूर्त जितने अल्प काल तक इसमें स्थित रहते हुए इसके अन्तिम चरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीनों कर्मों के आवरणों को नष्ट कर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तशक्ति से युक्त हो विकास की अग्रिम श्रेणी में चले जाते हैं।
विकास की इस श्रेणी में पतन का कोई भय ही नहीं रहता । व्यक्ति विकास की अग्रिम कक्षाओं में ही बढ़ता जाता है। यह नैतिक-पूर्णता की अवस्था है और व्यक्ति जब यथार्थ नैतिक-पूर्णता को प्राप्त कर लेता है, तो आध्यात्मिक-पूर्णता भी उपलब्ध हो जाती है। विकास की शेष दो श्रेणियाँ उसी आध्यात्मिक-पूर्णता की उपलब्धि से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-नैतिकता में आध्यात्मिकता, धर्म और नैतिकता-तीनों अलग-अलग तथ्य न होकर एक-दूसरे से संयोजित हैं। नैतिकता क्रिया है, आचरण है और आध्यात्मिकता उसकी उपलब्धि या फल है। विकास की यह अवस्था नैतिकता के जगत् से आध्यात्मिकता के जगत् में संक्रमित होने की है। यहाँ नैतिकता की सीमा परिसमाप्त होती है और विशुद्ध आध्यात्मिकता का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है। 13. सयोगीकेवली-गुणस्थान
इस श्रेणी में आनेवाला साधक अब साधक नहीं रहता, क्योंकि उसके लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता, लेकिन उसे सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता, क्योकि उसकी आध्यात्मिकपूर्णता में अभी कुछ कमी है। अष्ट कर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तरायये चार घातीकर्म तो क्षय हो ही जाते हैं, लेकिन चार अघातीकर्म शेष रहते हैं। आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय-इन चार कर्मों के बने रहने के कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाती। यहाँ बंधन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग-इन पाँच कारणों में योग के अतिरिक्त शेष चार कारण तो समाप्त हो जाते हैं, लेकिन आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने के कारण कायिक, वाचिक और मानसिक-व्यापार, जिन्हें जैन-दर्शन में योग' कहा जाता है, होते रहते हैं। इस अवस्था में मानसिक, वाचिक और कायिक-क्रियाएँ होती हैं और उनके कारण बन्धन भी होता है, लेकिन कषायों के अभाव के कारण टिकाव नहीं होता। पहले क्षण में बन्ध होता है, दूसरे क्षण में उसका विपाक (प्रदेशोदय के रूप में) होता है और तीसरे क्षण में वे कर्म-परमाणु निर्जरित हो जाते हैं। इस अवस्था में योगों के कारण होने वाले बन्धन और विपाक की प्रक्रिया को कर्मसिद्धान्त की मात्र औपचारिकता ही समझना चाहिए। इन योगों के अस्तित्व के कारण ही इस अवस्था को सयोगीकेवली-गुणस्थान कहा जाता है। यह साधक और सिद्ध के बीच की
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