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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
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शरद्-ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे जम जाने से स्वच्छ दिखाई देता है, लेकिन उसकी निर्मलतास्थायी नहीं होती, मिट्टी के कारणसमय आने पर वह पुनः मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्ममल के दब जाने से नैतिक-प्रगति एवं आत्म-शुद्धि की इसअवस्थाको प्राप्त करती हैं, वेएकसमयावधिके पश्चात पुनः पतित हो जाती हैं," अथवा जिस प्रकार राख में दबी हुई अग्नि वायु के योग से राख के उड़ जाने पर पुनः प्रज्वलित होकर अपना काम करने लगती है, उसी प्रकार दमित वासनाएं संयोग पाकर पुनः प्रज्वलित हो जाती हैं और साधक पुनः पतन की ओर चला जाता है। इस सम्बन्ध में गीताऔर जैनाचार-दर्शन का मतैक्य है। दमन अथवा निरोध एक सीमा के पश्चात् अपना मूल्य खो देते हैं। गीता कहती है - दमन या निरोध से विषयों का निवर्तन तो हो जाता है, लेकिन विषयों का रस, अर्थात् वैषयिक-वृत्ति का निवर्तन नहीं होता। वस्तुतः, उपशमन की प्रक्रिया में संस्कार निर्मूल नहीं होते हैं, संस्कारों के सर्वथा निर्मूल न होने से उनकी परम्परा समय पाकर पुनः प्रवृद्ध हो जाती है, इसलिए कहा गया है कि उपशम-श्रेणी यादमन के द्वारा आध्यात्मिक-विकास करनेवाला साधक साधना के उच्चतर पर पहुँचकर भी पतित हो जाता है। यह ग्यारहवाँ गुणस्थान पुनः पतन का है। 12. क्षीणमोह-गुणस्थान
___ जो साधक उपशम या दमन-विधि से आगे बढ़ते हैं, वे ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर पुनः पतित हो जाते हैं, लेकिन जो साधक क्षायिक-विधि, अर्थात् वासनाओं एवं कषायों का क्षय करते हुए, उन्हें निर्मूल करते हुए विकास करते हैं, वे दसवें गुणस्थान में रहे हुए अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर सीधे बारहवें गुणस्थान में आ जाते हैं। इस वर्ग में आने वाला साधक मोह-कर्म की 28 प्रवृत्तियों को पूर्णरूपेण समाप्त कर देता है और इसी कारण इस गुणस्थान को क्षीणमोह-गुणस्थान कहा गया है। यह नैतिक-विकास की पूर्ण अवस्था है। यहां पहुंचने पर साधक के लिए कोई नैतिक-कर्तव्य शेष नहीं रहता है। उसके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाला संघर्ष सदैवके लिए समाप्त हो जाता है, क्योंकि संघर्ष का कारण, कोई भी वासना शेष नहीं रहती। उसकी समस्त वासनाएँ, समस्त आकांक्षाएँ क्षीण हो चुकी होती हैं। ऐसा साधक राग-द्वेष से भी पूर्णतः मुक्त हो जाता है, क्योंकि राग-द्वेष का कारण, मोह समाप्त हो जाता है। इस नैतिक-पूर्णता की अवस्था को यथाख्यातचारित्र कहते हैं। जैन-विचारणा के अनुसार, मोहकर्मअष्टकों में प्रधान है। यह बन्धन में डालने वाले कर्मों की सेना का प्रधान सेनापति है। इसके परास्त हो जाने पर शेष कर्म भी भागने लग जाते हैं। मोह-कर्म के नष्ट हो जाने के पश्चात् थोड़े ही समय में दर्शनावरण, ज्ञानावरण, अन्तराय-ये तीनों कर्म भी नष्ट होने लगते हैं। क्षायिक-मार्ग पर
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