Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 508
________________ 506 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन गुणस्थान में आने पर आत्मा कर्मरूप बंधनों का अधिकांश भाग में नाश हो जाने से एवं कषायों के विनष्ट होने से भावों की विशुद्धिरूप अपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है तथा स्वतः ही शेष कर्मावरणों को नष्ट करने का सामर्थ्य अनुभव कर उनके नष्ट करने के प्रयास करता है। इस अवस्था में साधक मुक्ति को अपने अधिकारक्षेत्र की वस्तु मान लेता है। सदाचरण की दृष्टि से वस्तुतः सच्चे पुरुषार्थ-भाव का प्रकटीकरण इसी अवस्था में होता है। यद्यपि जैन-दर्शन नियति (देव) और पुरुषार्थ के सिद्धान्तों के सन्दर्भ में एकान्तिक-दृष्टिकोण नहीं अपनाता है, फिर भी यदि पुरुषार्थ और नियति के प्राधान्य की दृष्टि से गुणस्थानसिद्धान्त पर विचार किया जाए, तो प्रथम से सातवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में नियति की प्रधानता प्रतीत होती है और आठवें से चौदहवें गणस्थान तक की सात श्रेणियों में पुरुषार्थ का प्राधान्य प्रतीत होता है। जैन-परम्परा यह स्वीकार करती है कि यथाप्रवृत्तिकरण की पूर्व अवस्था तक, जो कि सम्यक्-आचरण की दृष्टि से सातवें गुणस्थान में होती है, नैतिक या चारित्रगत विकास मात्र गिरि नदी-पाषाण-न्याय से होता है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि इस गुणस्थान तक आध्यात्मिक-विकास में संयोग की ही प्रधानता रहती है। उसमें आत्मा का स्वतः का प्रयास सापेक्षतया अल्प ही होता है। आत्मा कर्मों की श्रृंखला तथा तजनित वासनाओं में इतनी बुरी तरह जकड़ी होती है कि उसे स्वशक्ति के उपयोग का अवसर ही प्राप्त नहीं होता है। यहाँ तक कर्म आत्मा को शासित करते हैं, लेकिन आठवें गुणस्थान से यह स्थिति बदल जाती है। अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा अब आत्मा कर्मों पर शासन करने लगती है। अन्तिम सात गुणस्थानों में कर्मों पर आत्मा का प्राधान्य होता है। दूसरे शब्दों में, प्राणीविकास की चौदह श्रेणियों में प्रथम सात श्रेणियों तक अनात्म का आत्म पर अधिशासन होता है और अन्तिम सात श्रेणियों में आत्म का अनात्म पर अधिशासनहोता है। गुणस्थान का सिद्धान्त आत्म और अनात्म के व्यावहारिक-संयोग की अवस्थाओं का निदर्शन है। विशुद्ध अनात्म और विशुद्ध आत्म-दोनों ही उसके क्षेत्र से परे हैं। ऐसे किसी उपनिवेश की कल्पना कीजिए, जिस पर किसी विदेशी जाति ने अनादिकाल से आधिपत्य कर रखा हो और वहाँ की जनता को गुलाम बना लिया हो- यही प्रथम गुणस्थान है। उस पराधीनता की अवस्था में ही शासक-वर्ग के द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ उठाकर वहीं की जनता में स्वतन्त्रता की चेतना का उदय हो जाता है - यही चतुर्थ गुणस्थान है। बाद में वह जनता कुछ अधिकारों की माँग प्रस्तुत करती है और कुछ प्रयासों और परिस्थितियों के आधार पर उनकी यह माँग स्वीकृत होती है - यही पाँचवाँ गुणस्थान है। इसमें सफलता प्राप्त कर जनता अपने हितों की कल्पना के सक्रिय होने पर औपनिवेशिकस्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास करती है और संयोग उसके अनुकूल होने से उनकी वह माँग भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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