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निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग
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के मूल तत्त्व, अर्थात् मनःस्थिरता को प्राप्त करना दुष्कर है। संन्यास - मार्ग साधना की व्यावहारिक दृष्टि से कठोर प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः सुसाध्य है, जबकि गृहस्थ - मार्ग व्यावहारिक दृष्टि से सुसाध्य प्रतीत होते हुए भी दुःसाध्य है, क्योंकि नैतिक-विकास के लिए जिस मनो-सन्तुलन की आवश्यकता है, वह संन्यास में सहज प्राप्त है, उसमें चित्तविचलन के अवसर अति न्यून हैं, जबकि गृहस्थ जीवन वन- खण्ड की तरह बाधाओं से भरा है। जैसे गिरिकन्दराओं में सुरक्षित रहने के लिए विशेष साहस एवं योग्यता अपेक्षित है, वैसे ही गृहस्थ-जीवन में नैतिक- पूर्णता प्राप्त करना विशेष योग्यता का ही परिचायक है।
गृही - जीवन में साधना के मूल तत्त्व, अर्थात् मनः स्थिरता को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य तक पहुंच पाना कठिन होता है। राग-द्वेष के प्रसंगों की उपस्थिति की सम्भावना गृह-जीवन में अधिक होती है, अतः उन प्रसंगों में राग-द्वेष नहीं करना या अनासक्ति रखना एक दुःसाध्य स्थिति है, जबकि संन्यासमार्ग में इन प्रसंगों की उपस्थिति के अवसर अल्प होते हैं, अतः इसमें नैतिकता की समत्वरूपी साधना सरल होती है। गृहस्थ जीवन में साधना की ओर जाने वाला रास्ता फिसलन भरा है, जिसमें कदम-कदम पर सतर्कता की आवश्यकता है। यदि साधक एक क्षण के लिए भी आवेगों के प्रवाह में नहीं संभला, तो फिर बच पाना कठिन होता है । वासनाओं के बवंडर के मध्य रहते हुए भी उनसे अप्रभावित रहना सहज कार्य नहीं है। महावीर और बुद्ध ने मानव की इन दुर्बलताओं को समझकर ही संन्यासमार्ग पर जोर दिया।
जैन और बौद्ध दर्शन में संन्यास निरापद मार्ग - महावीर या बुद्ध की दृष्टि में संन्यास या गृहस्थ-धर्म नैतिक जीवन के लक्ष्य नहीं हैं, वरन् साधन हैं। नैतिकता संन्यासधर्म या गृहस्थधर्म की प्रक्रिया में नहीं है, वरनू चित्त की समत्ववृत्ति में है, राग-द्वेष के प्रहाण में है, माध्यस्थभाव में है। नैतिक मूल्य तो मानसिक-समत्व या अनासक्ति का है। महावीर या बुद्ध का आग्रह कभी भी साधनों के लिए नहीं रहा। उनका आग्रह तो साध्य के लिए है । हाँ, वे यह अवश्य मानते हैं कि नैतिकता के इस आदर्श की उपलब्धि का निरापद मार्ग संन्यासधर्म है, जबकि गृहस्थधर्म बाधाओं से परिपूर्ण है, निरापद मार्ग नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार, जिसमें मरुदेवी जैसी निश्छलता और भरत जैसी जागरूकता एवं अनासक्ति हो, वही गृहस्थ जीवन में भी नैतिक परमलक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण को प्राप्त करने वाले सौ पुत्रों में यह केवल भरत की ही विशेषता थी, जिसने गृहस्थजीवन में रहते हुए भी पूर्णता को प्राप्त किया, शेष 99 पुत्रों ने तो परमसाध्य को प्राप्ति के लिए संन्यास का सुकर मार्ग ही चुना। वस्तुतः, गृहस्थ - जीवन में नैतिक-साध्य को प्राप्त कर लेना दुःसाध्य कार्य है । वह तो आग से खेलते हुए भी हाथ को नहीं जलने देने के समान है। गीता
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