Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 402
________________ 400 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन करना, 3. रात्रि में भोजन करना एवं भिक्षा ग्रहण करना, 4. मुनि के निमित्त बनाया गया भोजन आदि लेना (आधाकर्म), 5. शय्यातर, अर्थात् निवासस्थान देने वाले के गृहस्वामी का आहार ग्रहण करना, 6. भिक्षुया याचकों के निमित्त बनाया गया (औद्देशिक), खरीदा गया (क्रीत), उनके स्थान पर लाकर दिया गया (आहृत), उनके लिए मांगकर लाया गया (प्रामित्य) एवं किसी से छीनकर लाया गया आहारआदिपदार्थ ग्रहण करना, 7. प्रतिज्ञाओं का बार-बार भंग करना, 8.छहमास में एक गणसे दूसरे गण में चले जाना, अर्थात् जल्दीजल्दी बिना किसी विशेष कारण के गणपरिवर्तन करना, 9. एक मास में तीन बार नाभि या जंघा-प्रमाण जल में प्रवेश कर नदी आदि पार करना (उदकलेप), 10. एक मास में तीन बार से अधिक कपट करना अथवा कृत अपराध को छुपा लेना, 11. राजपिण्ड ग्रहण करना, 12. जानबूझकर असत्य बोलना, 13. जानबूझकर जीव-हिंसा करना, 14. जानबूझकर चोरी करना, 15. सचित्त पृथ्वी पर बैठना, सोना अथवा खड़े होना. 16. सचित्त जल से सस्निग्ध और सचित्त रज वाली पृथ्वी, शिला अथवा घुन लगी हुई लकड़ी आदि पर बैठना, सोना या कायोत्सर्ग करना, 17. प्राणी, बीज, हरित वनस्पति, कीड़ी नगरा, काई, फफूंदी, पानी, कीचड़ और मकड़ी के जालों वाले स्थान पर बैठना, सोना, 18. जानबूझकर मूल, कंद, त्वचा (छाल), प्रवाल, पुष्प, फल, हरित आदि का सेवन करना, 19. एक वर्ष में दस बार से अधिक पानी का प्रवाह लांघना, 20. एक वर्ष में दस बार मायाचार (कपट) करना, 21. सचित्त जल से गीले हाथ द्वारा अशनादि लेना। अनाचीर्ण-जो कृत्य श्रमण अथवा श्रमणियों के आचरण के योग्य नहीं हैं, वे अनाचीर्ण कहे जाते हैं। जैन-परम्परा में ऐसे अनाचीर्ण बावन माने गए हैं। दशवैकालिकसूत्र के तीसरे अध्याय में इनका सविस्तार विवेचन है।172 संक्षेप में, बावन अनाचीर्ण ये हैं - 1. औद्देशिक - श्रमणों के निमित्त बनाए गए भोजन, वस्त्र, पानी, मकान आदि किसी भी पदार्थ का ग्रहण करना, 2. नित्यपिण्ड (नियाग) - एक ही घर से नित्य एवं आमन्त्रित आहार ग्रहण करना, 3. अभ्याहृत- भिक्षुक के निवासस्थान पर गृहस्थ के द्वारा लाकर दिया गया आहार ग्रहण करना,4.क्रीत - मुनि के लिएखरीदी गई वस्तु को ग्रहण करना, 5. त्रिभक्त-तीन बार भोजन करना। एक समय भोजन करना श्रमण-जीवन का उत्तम आदर्श है, दो बार भोजन करना मध्यममार्ग है, लेकिन दो बार से अधिक भोजन करना अनाचीर्ण है। कुछ आचार्यों ने इसका अर्थ रात्रि-भोजन-निषेध माना है, लेकिन रात्रिभोजन-निषेधको तो छठवें महाव्रत के रूप में पहले ही वर्जित मान लिया गया है, अतः यहाँ त्रिभक्त का अर्थ तीन बार भोजन का निषेधही समझना चाहिए। 6. स्नान-स्नान करना। (मूलाचार में अस्नान को मुनि का मूल गुण बताया गया है), 7. गंध - इत्र, चंदन आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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