________________
432
भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
विवेक-शक्ति का विकास करना और (6) त्याग-- वृत्ति द्वारा सन्तोष व सहनशीलता बढ़ाना। शास्त्र कहता है कि आवश्यक-क्रिया आत्मा को प्राप्त भावशुद्धि से गिरने नहीं देती, गुणों की वृद्धि के लिए तथा प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिए आवश्यक-क्रिया का आचरण अत्यन्त उपयोगी है।' सामायिक (समता)
सामायिकसमत्ववृत्ति की साधना है। जैनाचारदर्शन में समत्व की साधना नैतिकजीवन का अनिवार्य तत्त्व है। वह नैतिक-साधना का अथ और इति-दोनों है। समत्वसाधना के दो पक्ष हैं, बाह्य-रूप में वह सावध (हिंसा) प्रवृत्तियों का त्याग है, तो आन्तरिक-रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव (सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति) तथा सुखदुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखता है, "लेकिन दोनों पक्षों से भी ऊपर वह विशुद्ध रूप में आत्मरमण या आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न है। समका अर्थ-आत्मभाव (एकीभाव) और अय का अर्थ है-गमन । जिसके द्वारा पर-परिणति (बाह्यमुखता) से आत्म-परिणति (अन्तर्मुखता) की ओर जाया जाता है, वही सामायिक है।" सामायिक समभाव में है, वह राग-द्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थता रखना है। माध्यस्थवृत्ति ही सामायिक है । सामायिक कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्ववृत्तिरूप पावन आत्म-गंगा में अवगाहन है,जो समग्र राग-द्वेषजन्य कलुष को आत्मा से अलग कर मानव को विशुद्ध बनाती है। संक्षेप में, सामायिक एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है, तो दूसरी ओर पाप-विरति।
समत्व-वृत्ति की यह साधना सभी वर्ग,सभी जाति और सभी धर्म वाले कर सकते हैं। किसी वेशभूषा और धर्म-विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। भगवतीसूत्र में कहा है, कोई भी मनुष्य, चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्ववृत्ति की आराधना कर सकता है। वस्तुतः, जो समत्ववृत्ति की साधना करता है, वह जैन ही है, चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो। 13 एक आचार्य कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई, जो भी समत्ववृत्ति का आचरण करेगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें सन्देह नहीं है। 14
बौद्ध-दर्शन में भी यह समत्व-वृत्ति स्वीकृत है। धम्मपद में कहा गया है कि सब पापों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है। गीता के अनुसार, सभी प्राणियों के प्रतिआत्मवत् दृष्टि, 1" सुख-दुःख, लौह-कंचन, प्रियअप्रिय और निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध (आरम्भ) का परित्याग ही नैतिक-जीवन का लक्षण है। 7 श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन! तू अनुकूल और प्रतिकूल, सभी स्थितियों में समभाव धारण कर।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org