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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आचरण से बच नहीं पाता। दूसरे शब्दों में, वह बुराई को बुराई के रूप में जानता तो है, फिर भी पूर्व संस्कारों के कारण उन्हें छोड़ नहीं पाता है। उसका ज्ञानात्मक-पक्ष सम्यक् (यथार्थ) होने पर भी आचरणात्मक-पक्ष असम्यक होता है। ऐसे साधक में वासनाओं पर अंकुश लगाने की या संयम की क्षमता क्षीण होती है। वह सत्य, शुभ या न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य, अन्याय या अशुभका साथ छोड़ने नहीं पाता। महाभारत में ऐसा चरित्र हमें भीष्म पितामह का मिलता है, जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने को विवश हैं। जैनविचार इसी को अविरतसम्यक्दृष्टित्व कहता है। इस स्थिति की जैन-व्याख्या यह है कि दर्शनमोह-कर्म की शक्ति के दब जाने, या उसके आवरण के विरल या क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति नैतिक-आचरण नहीं कर पाता । वह एक अपंग व्यक्ति की भांति है, जो देखते हुए भी चल नहीं पाता। अविरतसम्यक्दृष्टि आत्मा नैतिक-मार्ग को, श्रेय के मार्ग को जानते हुए भी उस पर आचरण नहीं कर पाता। वह हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को अनैतिक मानते हुए भी उनसे विरत नहीं होता। फिर भी, अविरतसम्यक्दृष्टि आत्मा में भी किसी अंश तक आत्म-संयम या वासनात्मक-वृत्तियों पर संयम होता है, क्योंकि अविरतसम्यक्दृष्टि में भी क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों के स्थायी तथा तीव्रतम आवेगों का अभाव होता है, क्योंकि जब तक कषायों के इस तीव्रतम आवेगों, अर्थात् अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का क्षय या उपशम नहीं होता, तब तक वह सम्यक्दर्शन भी प्राप्त नहीं होता । जैन-विचार के अनुसार सम्यक्-अविरत सम्यक्-दृष्टि-गुणस्थानवर्ती आत्मा को निम्न सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है -
1. अनन्तानुबन्धी-क्रोध (स्थाई तीव्रतम क्रोध) 2. अनन्तानुबन्धी-मान (स्थाई तीव्रतम मान) 3. अनन्तानुबन्धी-माया (स्थाई तीव्रतम कपट) 4. अनन्तानुबन्धी-लोभ (स्थाई तीव्रतम लोभ) 5. मिथ्यात्वमोह, 6. मिश्रमोह और 7. सम्यक्त्वमोह।
__ आत्माजब इन सात कर्म-प्रकृतियों को पूर्णतः नष्ट (क्षय) करके इस अवस्था को प्राप्त करता है, तो उसका सम्यक्त्व क्षायिक कहलाता है और ऐसा आत्मा इस गुणस्थान से वापस गिरता नहीं है, वरन् अग्रिम विकास श्रेणियों में होकर, अन्त में परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। उसका सम्यक्त्व स्थाई होता है, लेकिन जब आत्मा उपर्युक्त कर्मप्रकृतियों का दमन कर आगे बढ़ता है और इस अवस्था को प्राप्त करता है, तब उसका सम्यक्त्व औपशमिक-सम्यक्त्व कहलाता है। इसमें वासनाओं को नष्ट नहीं किया जाता, वरन् उन्हें दबाया जाता है, अतः ऐसे यथार्थ दृष्टिकोण में अस्थायित्व होता है और आत्मा अन्तर्मुहूर्त (48 मिनिट) के अन्दर ही दमित वासनाओं के पुनः प्रकटीकरण पर उनके प्रबल
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