Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 505
________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास 503 लेता है, तब-तब वह आगे की श्रेणी (अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान ) में चला जाता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी होते हैं, तब-तब वह उस आगे की श्रेणी से पुनः लौटकर इस श्रेणी में आ जाता है। वस्तुतः, यह उन साधकों का विश्रान्तिस्थल है, जो साधना-पथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं, लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में आगे बढ़ नहीं पाते, अतः इस वर्ग में रहकर विश्राम करते हुए शक्ति-संचय करते हैं। इस प्रकार, यह गुणस्थान अशुभाचरण से अधिकांश रूप में विरति है। इसमें अशुभ मनोवृत्तियों को क्षीण करने का भरसक प्रयास किया जाता है। इस अवस्था में प्रायः आचरण-शुद्धि तो हो जाती है, लेकिन विचार (भाव) शुद्धि का प्रयास चलता रहता है। इस गुणस्थानवर्ती साधक साधनापथ में परिचारण करते हुए आगे बढ़ना तो चाहता है,लेकिन प्रमाद उसमें अवरोधक बना रहता है। ऐसे साधकों को साधना के लक्ष्य काभान तो रहता है, लेकिन लक्ष्य के प्रति जिस सतत जागरूकता की अपेक्षा है, उसका उनमें अभाव होता है। श्रमण छठवें और सातवें गुणस्थान के मध्य परिचारण करते रहते हैं। गमनागमन, भाषण, आहार, निद्रा आदि जैविक-आवश्यकताओं एवं इन्द्रियों की अपने विषय कीओर चंचलता के कारण जब-जब वे लक्ष्य के प्रति सतत जागरूकता नहीं रख पाते, तब-तब वे इस गुणस्थान में आजाते हैं और पुनः लक्ष्य के प्रति जागरूक बनकर सातवेंगुणस्थान में चले जाते हैं। वस्तुतः, इस गुणस्थान में रहने का कारण देहभाव होता है। जब भी साधक में देहभाव आता है, वह सातवें से इस छठवें गुणस्थान में आ जाता है, फिर भी इस गुणस्थानवर्ती आत्मा में मूर्छा या आसक्ति नहीं होती। गुणस्थान में आने के लिए साधक को मोह-कर्म की पन्द्रह प्रकृतियों का क्षय, उपशम, क्षयोपशम करना होता है। 1. स्थाई प्रबलतम (अनन्तानुबंधी) क्रोध, मान, माया और लोभ 4 2. अस्थाई किन्तु अनियंत्रणीय (अप्रत्याख्यानी) क्रोध, मान, माया और लोभ 4 3. नियंत्रणीय (प्रत्याख्यानी) क्रोध, मान, माया और लोभ 4. मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्व-मोह इस अवस्था में आत्मकल्याण के साथ लोक-कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है। यहाँ आत्मा पुद्गलासक्ति या कर्त्तव्य-भाव का त्याग कर विशुद्ध ज्ञाता एवं दृष्टा के स्वस्वरूप में अवस्थिति का प्रयास तो करती है, लेकिन देह-भाव या प्रमाद अवरोध उपस्थित करता रहता है, अतः इस अवस्था में पूर्ण आत्म-जाग्रति सम्भव नहीं होती है, इसलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलीकरण या उपशमन करना होता है और जब वह उसमें सफल हो जाता है, तो विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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