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आध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास
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आवेगों के वशीभूत हो यथार्थता से विमुख हो जाता है। इसी प्रकार, जब वासनाओं को आंशिक रूप में क्षय करने पर और आंशिक रूप में दबाने पर यथार्थता का जो बोध या सत्य -- दर्शन होता है, उसमें भी अस्थायित्व होता है, क्योंकि दमित वासनाएँ पुनः प्रकट होकर व्यक्ति को यथार्थ दृष्टि के स्तर में गिरा देती है । वासनाओं के आंशिक क्षय और आंशिक दमन (उपशम) पर आद्धृत यथार्थ दृष्टिकोण क्षायोपशमिक- सम्यक्त्व कहलाता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में इस अवस्था की तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है। जिस प्रकार औपशमिक एवं क्षायोपशमिक की अवस्था से सम्यक् मार्ग से पराङ्मुख होने की सम्भावना रहती है, उसी प्रकार स्रोतापन्नसाधक भी मार्गच्युत हो सकता है। महायानी बौद्ध साहित्य में इस अवस्था की तुलना 'बोधि प्रणिधिचित्त' से की जा सकती है। जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा यथार्थ मार्ग को जानती है, उस पर चलने की भावना भी रखती है, लेकिन वास्तविक रूप में उस मार्ग पर चलना प्रारम्भ नहीं कर पाती, उसी प्रकार 'बोधि प्रणिधिचित' में भी यथार्थ मार्गगमन की या लोकपरित्राण की भावना का उदय हो जाता है, लेकिन वह उस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । आचार्य हरिभद्र ने सम्यदृष्टि - अवस्था की तुलना महायान के बोधिसत्व के पद
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है । " बोधिसत्व का साधारण अर्थ है - ज्ञान-प्राप्ति का इच्छुक । " इस अर्थ में बोधिसत्व सम्यक्दृष्टि से तुलनीय है, लेकिन यदि बोधिसत्व के लोक-कल्याण के आदर्श को सामने रखकर तुलना की जाए, तो बोधिसत्व - पद उस सम्यक्रदृष्टि आत्मा से तुलनीय है, जो तीर्थकर होनेवाला है। 20
5. देशविरति - सम्यक् दृष्टि- गुणस्थान
वैसे यह आध्यात्मिक विकास की पाँचवीं श्रेणी है, लेकिन नैतिक आचरण की दृष्टि से यह प्रथम स्तर ही है, जहाँ से साधक नैतिकता के पथ पर चलना प्रारम्भ करता है। चतुर्थ अविरतसम्यकदृष्टि-गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्त्तव्य का विवेक रखते हुए भी कर्त्तव्य-प - पथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता, जबकि इस पाँचवें देशविरतिसम्यक् दृष्टि- गुणस्थान में साधक कर्त्तव्यपथ पर यथाशक्ति चलने का प्रारम्भिक प्रयास प्रारम्भ कर देता है। इसे देशविरति - सम्यक दृष्टि- गुणस्थान कहा जा सकता है। देशविरति का अर्थ है - वासनामय जीवन से आंशिक रूप में निवृत्ति । हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध, लोभ आदि कषायों से आंशिक रूप से विरत होना ही देशविरति है। इस गुणस्थान में साधक यद्यपि गृहस्थाश्रमी रहता है, फिर भी वासनाओं पर थोड़ा-बहुत यथाशक्ति नियंत्रण करने का प्रयास करता है । जिसे वह उचित समझता है, उस पर आचरण करने की कोशिश भी करता है। इस गुणस्थान में स्थित साधक श्रावक के बारह व्रतों का आचरण करता है।
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