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जैन-आचार के सामान्य नियम
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द्वारा चित्रण किया गया है। कल्पना कीजिए कि समग्र भारतवर्ष की धान्य-राशि एक जगह एकत्र की जाए और उसके उस विशाल ढेर में एक सेर सरसों मिला दी जाए। पुनः, सौ वर्ष की बुढ़िया, जिसके हाथ कांपते हों, गर्दन हिलती हो और आँखों से भी कम दिखाई देता हो, उसे छाज देकर कहा जाए कि इस ढेर में से वह मिली हुई एक सेर सरसों अलग कर दे। क्या वह बुढ़िया एक-एक दाना बीनकर उस एक सेर सरसों को अलग निकाल सकेगी ? यह असम्भव है, परन्तु यदि यह किसी प्रकार से सम्भव हो जाए, तो भी एक बार मनुष्य-जन्म को पाकर उसे खो देने पर पुनः उसको प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभहै। एक दूसरे उदाहरण में यह कल्पना की गई है कि स्वयंभूरमण समुद्र में पूर्व दिशा के किनारे से एक जुआ पानी में तैर रहा था और पश्चिम किनारे से एक कीली। क्या कभी हवा के झोकों से लहरों पर तैरती हुई कीली जुए के छेद में अपने-आप आकर लग सकती है? काश! यह अघटित भी घटित हो जाए, परन्तु एक बार खो देने पर मनुष्य-जन्म का पुनः प्राप्त कर लेना अत्यन्त कठिन है। जैन-परम्परा के अनुसार, मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति केवल मानव-जीवन से सम्भव है। बौद्ध-परम्परा ने मानव-योनि से निर्वाण की प्राप्ति मानी है। सद्भाग्य से मानव-जन्म उपलब्ध भी हो जाए, तो भी सत्य-धर्म का श्रवण होना अत्यन्त कठिन है। सत्य-धर्म का श्रवण करने का अवसर मिल भी जाए, लेकिन फिर ऐसी अनेक आत्माएँ हैं, जिन्हें धर्मश्रवण के पश्चात् भी उस पर श्रद्धा नहीं होती। श्रद्धा हो जाने पर भी उसके अनुकूल आचरण करनाअत्यन्त कठिन है। इस प्रकार, सत्य-धर्म की उपलब्धि और उस पर आचरण अत्यन्त दुर्लभ है, अतः साधक को इनकी दुर्लभता का विचार करते हुए हमेशा यह प्रयास करना चाहिए कि यह जो स्वर्ण-अवसर उसे उपलब्ध हो गया है, वह उसके हाथ से न निकल जाए । बोधि-दुर्लभता का सन्देश देते हुए महावीर कहते हैं - मनुष्यों! बोधको प्राप्त करो, बोध को प्राप्त क्यों नहीं करते हो ? मृत्यु के बाद बोध प्राप्त होना कठिन है, बीती हुई रात्रियाँ पुनः नहीं लौटतीं और फिर मनुष्य-जन्म मिलना भी दुर्लभ है। 170
बौद्ध-परम्परा में बोधि-दुर्लभ भावना-बौद्ध-धर्म में भीधर्म-बोध की दुर्लभता को स्वीकार किया गया है। धम्मपद में कहा गया है कि मनुष्यत्व की प्राप्ति दुर्लभ है,मानव-जन्म पाकर भी जीवित रहना दुर्लभ है, कितने ही अकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। मनुष्य बनकर सद्धर्म का श्रवण दुर्लभ है और बुद्ध होकर उत्पन्न होना तो अत्यन्त दुर्लभ है। 171 चारभावनाएँ
प्रकारान्तर से जैन-परम्परा में चार भावनाओं का विवेचन भी उपलब्ध है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में 72, आचार्य हरिभद्र ने योगशतक 173 में, आचार्य अमितगति 174 ने सामायिक-पाठ में तथा आचार्य हेमचन्द्र 175 ने योगशास्त्र में (1) मैत्री
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