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जैन-आचार के सामान्य नियम
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प्राणान्त करने के अधिकार का समर्थन नैतिक-दृष्टि से किया था। महात्माजी का कथन है कि जब मनुष्य पापाचार का वेग बलवत्तर हुआ देखता है और आत्महत्या के बिना अपनेआपसे नहीं बचा सकता, तब होने वाले पाप से बचने के लिए उसे आत्महत्या करने का अधिकार है। 209 कोसम्बीजी ने भी स्वेच्छामरण का समर्थन किया था और उसकी भूमिका में पं. सुखलालजी ने कोसम्बीजी की इच्छा को भी अभिव्यक्त किया था। 210
काका कालेलकर स्वेच्छामरण को महत्वपूर्ण मानते हुए जैन-परम्परा के समान ही कहते हैं कि जब तक यह शरीर मुक्ति का साधन हो सकता है, तब तक अपरिहार्य हिंसा को सहन करके भी इसे जलाना चाहिए। जब हम यह देखें कि आत्मा के अपने विकास के प्रयत्न में शरीर बाधारूप ही होता है, तब हमें उसे छोड़ना ही चाहिए। जो किसी भी हालत में जीना चाहता है, उसकी शरीरनिष्ठा तो स्पष्ट है ही, लेकिन जो जीवन से ऊबकर, अथवा केवलमरने के लिए मरना चाहता है, तो उसमें भी विकृत शरीर-निष्ठा है। जो मरण से डरता है और जो मरण ही चाहता है, वे दोनों जीवन का रहस्य नहीं जानते । व्यापक जीवन में जीना और मरना-दोनों का अन्तर्भाव होता है, जिस तरह उन्मेष और निमेष-दोनों क्रियाएँ मिलकर ही देखने की एक क्रिया पूरी होती है।
भारतीय नैतिक-चिन्तन में केवल जीवन जीने की कला पर ही नहीं, वरन् उसमें जीवन की कला के साथ-साथ मरण की कला पर भी विचार हुआ है। नैतिक-चिन्तन की दृष्टि से, जीवन को कैसे जीना चाहिए, यही महत्वपूर्ण नहीं है, वरन् कैसे मरना चाहिए, यह भी महत्वपूर्ण है। मृत्युकी कला जीवन की कला से भी महत्वपूर्ण है। आदर्श मृत्यु ही नैतिकजीवन की कसौटी है। जीना तो विद्यार्थी के सत्रकालीन-अध्ययन के समान है, जबकि मृत्यु परीक्षा का अवसर है। हम जीवन की कमाई का अन्तिम सौदा मृत्यु के समय करते हैं। यहाँ चूके, तो फिर पछताना होता है और इसी अपेक्षा से कहा जा सकता है कि जीवन की कलाकी अपेक्षा मृत्यु की कला अधिक मूल्यवान् है। भारतीय नैतिक-चिन्तन के अनुसार, मृत्यु का अवसर ऐसा अवसर है, जब अधिकांश जन अपने भावी जीवन का चुनाव करते हैं। गीता का कथन है कि मृत्यु के समय जैसी भावना होती है, वैसी ही योनि जीव प्राप्त करता है (18/5-6)। जैन-परम्परा में खन्धक मुनि की कथा यही बताती है कि जीवन भर कठोर साधना करनेवाला महान् साधक, जिसने अपनी प्रेरणा एवं उद्बोधन से अपने सहचारी पांच सौ साधक शिष्यों को उपस्थित मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृत-पान कराया, वही साधक स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने साधना-पथसे विचलित हो गया। वैदिक-परम्परा में जड़भरत का कथानक भी यही बताता है कि इतने महान् साधक को भी मरण-वेला में हरिण पर आसक्ति रखने के कारण पशु-योनि में जाना पड़ा। ये कथानक हमारे सामने मृत्यु
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