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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
मात्र चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान की ओर होने वाले पतन को सूचित करते हैं। इन गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है। 14. मिथ्यात्व-गुणस्थान
___ इसअवस्थामें आत्मा यथार्थ ज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहती है। आध्यात्मिकदृष्टि से यह आत्मा की बहिर्मुखी अवस्था है। इसमें प्राणी यथार्थबोध के अभाव के कारण बाह्य-पदार्थों से सुखों की प्राप्ति की कामना करता है और उसे आध्यात्मिक या आत्मा के आन्तरिक-सुख का रसास्वादन नहीं हो पाता। अयथार्थ दृष्टिकोण के कारण वह असत्य को सत्य और अधर्म कोधर्म मानकर चलता है। वह दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह लक्ष्य-विमुख हो भटकता रहता है और अपने गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर पाता। यह आत्मा की अज्ञानमय अवस्था है। नैतिक-दृष्टि से इस अवस्था में प्राणी कोशुभाशुभयाकर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक नहीं होता है। वह नैतिक-विवेक से तो शून्य होता ही है, नैतिक-आचरण से भी शून्य होता है। इसी बात को पारिभाषिक-शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मिथ्यात्वगुणस्थान में आत्मा दर्शनमोह और चारित्रमोह की कर्म-प्रवृत्तियों से प्रगाढ़ रूप से जकड़ी होती है। मानसिक-दृष्टि से मिथ्यात्व-गुणस्थान में प्राणी तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ (अनन्तानुबन्धी-कषाय) के वशीभूत रहता है। वासनात्मक-प्रवृत्तियाँ उस पर पूर्ण रूपसे हावी होती हैं, जिनके कारण वह सत्य दर्शन एवं नैतिक-आचरण से वंचित रहता है। जैन-विचारधारा के अनुसार, संसार की अधिकांश आत्माएँ मिथ्यात्व-गुणस्थान में ही रहती हैं, यद्यपि ये भी दो प्रकार की आत्माएँ हैं - 1. भव्य आत्मा-जो भविष्य में कभी न कभी यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त हो, नैतिक-आचरण के द्वारा अपना आध्यात्मिक-विकास कर पूर्णत्व को प्राप्त कर सकेंगी और 2. अभव्य आत्मा-वेआत्माएँ, जो कभीभीआध्यात्मिक एवं नैतिक-विकास नहीं कर सकेंगी, न यथार्थबोध ही प्राप्त करेंगी। मिथ्यात्व-गुणस्थान में
आत्मा 1. एकान्तिक-धारणाओं, 2. विपरीत धारणाओं, 3. वैनयिकता (रूढ़ परम्पराओं), 4. संशय और 5. अज्ञान से युक्त रहती हैं, इसलिए उसमें यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति उसी प्रकार रुचि का अभाव होता है, जैसे ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को मधुर भोजन रुचिकर नहीं लगता। व्यक्ति को यथार्थ दृष्टिकोण या सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए जो करना है, वह यही है कि वह एकान्तिक एवं विपरीत धारणाओं का परित्याग कर दे, स्वयं को पक्षाग्रह के व्यामोह से मुक्त रखे। जब व्यक्ति इतना कर लेता है, तो यथार्थ दृष्टिकोण वाला बन जाता है। वस्तुतः, यथार्थ या सत्य प्राप्त करने की वस्तु नहीं है। वह सदैव उसी रूप में उपस्थित है, केवल हम अपने पक्षाग्रह और एकान्तिक-व्यामोह के कारण उसे देख नहीं पाते हैं । जो आत्माएँ दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती हैं, वे अनन्तकाल तक इसी वर्ग में बनी रहती हैं और अपना आध्यात्मिक-विकास नहीं कर पाती हैं। फिर भी, इस प्रथम वर्ग की
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