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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
समाधि-मरण के दोष- जैन-आचार्यों ने समाधिमरण के लिए निम्न पाँच दोषों से बचने का निर्देश किया है - (1) जीवन की आकांक्षा, (2) मृत्यु की आकांक्षा (3) ऐहिक-सुखों की कामना, (4) पारलौकिक-सुखों की कामना और (5) इन्द्रियविषयों के भोगों की आकांक्षा।
बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा और मृत्यु की तृष्णा-दोनों को ही अनैतिक माना है । बुद्ध के अनुसार, भवतृष्णा और विभवतृष्णा क्रमशः जीविताशा और मरणाशा की प्रतीक हैं और जब तक ये आशाएँ या तृष्णाएँ उपस्थित हैं, तब तक नैतिक-पूर्णता सम्भव नहीं है, अतः साधक को इनसे बचते ही रहना चाहिए। फिर भी यह पूछा जा सकता है कि क्या समाधि-मरण मृत्यु की आकांक्षा नहीं है ? समाधि-मरणऔर आत्महत्या
जैन, बौद्ध और वैदिक-तीनों परंपराओं में जीविताशा और मरणाशा-दोनों को ही अनुचित कहा गया है, 201 तो यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या समाधि-मरण मरणाकांक्षा या आत्महत्या नहीं है ? वस्तुतः, समाधि-मरण न तो मरणाकांक्षा है और न आत्महत्याही। व्यक्ति आत्महत्या या तो क्रोध के वशीभूत होकर करता है, या फिर सम्मान या हितों की गहरी चोट पहुँचने पर, अथवा जीवन से निराश हो जाने पर करता है, लेकिन यह सभी चित्त की सांवेगिक-अवस्थाएँ हैं, जबकि समाधिमरण तो चित्त की समत्वअवस्था है, अतः उसे आत्महत्या नहीं कह सकते। दूसरे, आत्महत्या या आत्मबलिदान में मृत्युको निमन्त्रण दिया जाता है। व्यक्ति के अन्तस् में मरने की इच्छा छिपी रहती है, लेकिन समाधिमरण में मरणाकांक्षा का न रहना ही अपेक्षित है, क्योंकि समाधिमरण के प्रतिज्ञासूत्र में ही साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मृत्यु की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करूंगा (काल अकंखमाणे विहरामि)। यदि समाधिमरण में मरने की इच्छा ही प्रमुख होती, तो उसके प्रतिज्ञासूत्र में इन शब्दों के रखने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। जैन-विचारकों ने तो मरणाशंसा को समाधि-मरण का दोष ही कहा है, अतः समाधिमरण को आत्महत्या नहीं कह सकते । जैन-विचारकों ने इसीलिए सामान्य स्थिति में शस्त्रवध, अमिप्रवेश या गिरिपतन आदि के द्वारा तात्कालिक मृत्युवरण को अनुचित ही माना है, क्योंकि ऐसा करने में मरणाकांक्षा की सम्भावना है। समाधि-मरण में आहारादि के त्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, मात्र देहपोषण का विसर्जन किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम अवश्य है, लेकिन उसकी आकांक्षा नहीं, जैसे फोड़े की चीरफाड़ से वेदना अवश्य होती है, लेकिन उसमें वेदना की आकांक्षा नहीं होती है। एक जैन-आचार्य का कहना है कि समाधिमरण की क्रिया मरण के निमित्त नहीं होकर उसके प्रतिकार के लिए है, जैसे व्रणका चीरना वेदना के लिए न होकर वेदना के प्रतिकार के लिए होता है। 202 यदिआपरेशन की क्रिया में हो जाने
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