________________
जैन-आचार के सामान्य नियम
473
यदि कोई गृहस्थ असाध्य रोग से पीड़ित हो, अतिवृद्ध हो, किसी इन्द्रिय से उत्पन्न आनन्द का अभिलाषी न हो, जिसने अपने कर्तव्य कर लिए हों, वह महाप्रस्थान, अग्नि या जल में प्रवेश करके, अथवा पर्वतशिखर से गिरकर अपने प्राणों का विसर्जन कर सकता है। ऐसा करके वह कोई पाप नहीं करता। उसकी मृत्यु तो तपों से भी बढ़कर है। शास्त्रानुमोदित कर्तव्यों के पालन में अशक्त होने पर जीने की इच्छा रखना व्यर्थ है।197 श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध के अठारहवें अध्याय में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को स्वीकार किया गया है। वैदिक-परम्परा में स्वेच्छा मृत्युवरण का समर्थन न केवल शास्त्रीय-आधारों पर हुआ है, वरन् व्यावहारिक जीवन में इसके अनेक उदाहरण भी वैदिक-परम्परा में उपलब्ध हैं। महाभारत में पाण्डवों के द्वारा हिमालय-यात्रा में किया गया देहपात मृत्यु-वरण का ही उदाहरण है। डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे ने वाल्मीकि रामायण एवं अन्य वैदिक-धर्मग्रन्थों तथा शिलालेखों के आधार पर शरभंग, महाराजारघु, कलचुरी के राजा गांगेय, चन्देलकुल के राजाधंगदेव, चालुक्यराज, सोमेश्वर आदिके स्वेच्छा मृत्यु-वरणका उल्लेख किया है 1198 मेगस्थनीजने भी ईसवी पूर्व चतुर्थशताब्दी में प्रचलित स्वेच्छामरण का उल्लेख किया है। प्रयागमें अक्षयवट से कूदकर गंगा में प्राणान्त करने की प्रथा तथा काशी में करौट लेने की प्रथा वैदिक-परम्परा में मध्य युग तक प्रचलित थी। यद्यपिये प्रथाएँ आज नामशेषहो गई हैं, तथापि वैदिक-संन्यासियों द्वारा जीवित समाधि लेने की प्रथा आज भी जनमानस में श्रद्धा का केन्द्र है।199
इस प्रकार, हम देखते हैं कि न केवल जैन और बौद्ध-परम्पराओं में, बल्कि वैदिक परम्परा में भी मृत्यु-वरण का समर्थन है, लेकिन जैन और वैदिक-परम्पराओं में प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ वैदिक-परम्परा में जल एवं अग्नि में प्रवेश, गिरि-शिखर से गिरना, विष या शस्त्र-प्रयोग आदि विविध साधनों में मृत्यु-वरण का विधान है, वहाँ जैनपरम्परा में सामान्यतया केवल उपवास द्वारा ही देहत्याग का विधान है। जैन-परम्परा शस्त्र आदिसे होने वाली तात्कालिक मृत्यु की अपेक्षा उपवास द्वारा होनेवाली क्रमिक मृत्यु को ही अधिक प्रशस्त मानती है। यद्यपि ब्रह्मचर्य की रक्षा आदि कुछ प्रसंगों में तात्कालिक मृत्यु-वरण को स्वीकार किया गया है, तथापि सामान्यतया जैन-आचार्यों ने मृत्यु-वरण, जिसे प्रकारान्तर से आत्महत्या भी कहा जा सकता है, की आलोचना की है। आचार्य समन्तभद्र ने गिरिपतन याअग्निप्रवेश के द्वारा किए जाने वाले मृत्युवरण को लोकमूढ़ता कहा है। 200 जैन-आचार्यों की दृष्टि में समाधिमरणका अर्थमृत्युकी कामना नहीं, वरन् देहासक्ति का परित्याग है। जिस प्रकार जीवन की आकांक्षा दूषित है, उसी प्रकार मृत्यु की आकांक्षा भी दूषित कही गई है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org