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जैन-आचार के सामान्य नियम
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है। सागारी-संथारा मृत्युपर्यन्त के लिए नहीं, वरन् परिस्थिति-विशेष के लिए होता है, अतः परिस्थिति-विशेष के समाप्त हो जाने पर उस व्रत की मर्यादा भी समाप्त हो जाती है।
सामान्य संथारा- जब स्वाभाविक जरावस्था अथवा असाध्य रोग के कारण पुनः स्वस्थ होकर जीवित रहने की समस्त आशाएँ धूमिल हो गई हों, तब यावज्जीवन तक जो देहासक्ति एवं शरीर-पोषण के प्रयत्नों का त्याग किया जाता है, वह सामान्य संथारा है । यह यावज्जीवन के लिए होता है, अर्थात् देहपात परही पूर्ण होता है। सामान्य संथारा ग्रहण करने के लिए जैनागमों में निम्न स्थितियाँ आवश्यक मानी गई हैं- जब सभी इन्द्रियाँ अपने कार्यों का सम्पादन करने में अक्षम हो गई हों, जब शरीर सूखकर अस्थिपंजर रह गया हो, पचन-पाचन, आहार-विहार आदि शारीरिक-क्रियाएँ शिथिल हो गई हों और इनके कारण साधना और संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होना सम्भव न रहा हो, तभी अर्थात् मृत्यु के उपस्थित हो जाने पर ही सामान्य संथारा ग्रहण कियाजा सकता है। सामान्य संथारा तीन प्रकार का है- (अ) भक्त-प्रत्याख्यान-आहार आदि का त्याग कर देना (ब) इंगितमरण- एक निश्चित भू-भाग पर हलन-चलन आदि शारीरिक-क्रियाएँ करते हुए आहार आदि का त्याग करना, (स) पादोपगमन - आहार आदि के त्याग के साथ-साथ शारीरिक क्रियाओं का निरोध करते हुए मृत्युपर्यन्त निश्चल रूप से लकड़ी के तख्ते के समान स्थिर पड़े रहना। उपर्युक्त सभी प्रकार के समाधि-मरणों में मन कासमभाव में स्थित होना अनिवार्य है। समाधि-मरण ग्रहण करने की विधि
__ जैनागमों में समाधि-मरण ग्रहण करने की विधि भी बताई गई है। सर्वप्रथम मलमूत्रादिअशुचि-विसर्जन के स्थान का अवलोकन कर नरम तृणों की शय्या तैयार कर ली जाती है। तत्पश्चात् सिद्ध, अरहन्त और धर्माचार्यों को विनयपूर्वक नमस्कार कर पूर्वगृहीत प्रतिज्ञाओं में लगे हुए दोषों की आलोचना और उनका प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है। इसके बाद, समस्त प्राणियों से क्षमा याचना की जाती है और अन्त में अठारह पापस्थानों, अन्नादि चतुर्विध-आहारों का त्याग करके शरीर के ममत्व एवं पोषण-क्रिया का विसर्जन किया जाता है। साधक प्रतिज्ञा करता है कि मैं पूर्णतः हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभयावत् मिथ्यादर्शन-शल्य से विरत होता हूँ, अन्न आदि चारों प्रकार के आहार का यावज्जीवन के लिए त्याग करता हूँ। मेरा यह शरीर, जो मुझे अत्यन्त प्रिय था, मैंने इसकी बहुत रक्षाकीथी, कृपण के धन के समान इसे संभालता रहाथा, इस पर मेरा पूर्ण विश्वास था ( कि यह मुझे कभी नहीं छोड़ेगा), इसके समान मुझे अन्य कोई प्रिय नहीं था, इसलिए मैंने इसे शीत, गर्मी, क्षुधा, तृषा आदि अनेक कष्टों से एवं विविध रोगों से बचाया और सावधानीपूर्वक इसकी रक्षा करता रहा, अब मैं इस देह का विसर्जन करता हूँ और
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