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जैन-आचार के सामान्य नियम
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'ब्रह्म-विहार' कहा है। ये चारों भावनाएँ चित्त की सर्वोत्कृष्ट और दिव्य अवस्थाएँ हैं, चित्त-विशुद्धि का उत्तम साधन हैं। जो इनकी भावना करता है, वह सद्गति अथवा निर्वाण प्राप्त करता है। महायान-सम्प्रदाय में इनके विषय में जैन-दर्शन की अपेक्षा काफी गहराई से विचार हुआ है। इन भावनाओं का सर्वोच्च विकास आचार्य शान्तिदेव के बोधिचर्यावतार में मिलता है। प्रत्येक भावना की साधना में कितनी सजगता की आवश्यकता है, इसका भी बौद्ध-दार्शनिकों ने प्रतिपादन कियाहै। प्रत्येक भावना के दो शत्रु माने गए हैं- 1. समीपवर्ती
और 2. दूरवर्ती। निकटवर्ती शत्रु छद्मरूप में उस भावना के समान ही प्रतीत होते हैं, जैसेराग और मैत्री करुणाऔर शोक। इनभावनाओं की साधना करते समय येशत्रु साधक के चित्त पर बिना पता चले ही अधिकार कर लेते हैं, अतः इनसे विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता है। दूरवर्ती शत्रु उस भावना के विरोधी होते हैं। दोनों ही शत्रुओं से भावनाओं की रक्षा करनी चाहिए। मैत्रीभावना का निकटवर्ती शत्रु राग है, क्योंकि यह मैत्री के समान है, जबकि द्वेष उसका दूरवर्ती शत्रु है। प्रमोदभावना का निकटतम शत्रु सौमनस्यता या रति है। संसार के प्राणियों की सुख-सुविधाओं को देखकर जैसे प्रमोद होता है, वैसे ही उनमें रति भी उत्पन्न हो सकती है, अतः प्रमोद-भावना के समय यह सावधानी रखनी होती है, प्रमोद के होते हुए रति (प्रीति) न हो। अरति या अप्रीति प्रमोद का दूरवर्ती शत्रु है। करुणा का निकटवर्ती शत्रु शोक है, क्योंकि जिनके दुःखों को देखकर चित्त में करुणा का उदय होता है, उनके सम्बन्ध में तद्विषयक शोकभी हो सकता है। करुणाका दूरवर्ती शत्रु विहिंसा है। अज्ञानयुक्त उपेक्षा माध्यस्थ-भावना का निकटवर्ती शत्रु है, जबकि राग और द्वेष उसके दूरवर्ती शत्रु हैं।
वैदिक-परम्परामें चारभावनाएँ-पातंजल-योगसूत्र में भी इन्हींचारभावनाओं का उल्लेख है। 186 उनके अनुसार, उपर्युक्त चारों भावनाओं का तात्पर्य वही है, जो कि जैन-परम्परा में वर्णित है। यह तो स्पष्ट ही है कि जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराएँ इन भावनाओं के विवेचन में अति निकट हैं। तीनों ही परम्पराओं का यह साम्य पारस्परिकनिकटता का परिचायक है। समाधि-मरण (संलेखना)
जैन-परम्परा के सामान्य आचार-नियमों में संलेखना यासंथारा (स्वेच्छापूर्वक मृत्यु-वरण) एक महत्वपूर्ण तथ्य है। जैन गृहस्थ-उपासकों एवं श्रमण-साधकों, दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु-वरण का विधान जैन-आगमों में उपलब्ध है। जैनागम-साहित्य ऐसे साधकों की जीवन-गाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने स्वेच्छया मरण का व्रत अंगीकार किया था । अन्तकृत्दशांग एवं अनुत्तरोपपातिक-सूत्रों में उन श्रमण-साधकों का और उपासकदशांगसूत्र में आनन्दआदिउन गृहस्थ-साधकों का जीवन-दर्शन वर्णित है, जिन्होंने
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