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श्रमण-धर्म
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कहा जा सकता। जो आचरण का नियम एक व्यक्ति को कठोर लगता है, वह दूसरे के लिए सरल हो सकता है। जैन-साधुओं का यह नियम होता है कि वे वाहन का उपयोग नहीं करते, वरन् सभी ऋतुओं में नंगे पांव पैदल चलते हैं। अब यह नियम उस व्यक्ति के लिए, जिसने गृहस्थ-जीवन में एक मील भी पैदल यात्रा नहीं की हो, कठोर होगा और उस किसान के लिए, जो रात-दिन पैदल चलता था, आसान होगा।
एक प्रकार का आचरण व्यक्ति को उस प्रकार के अभ्यास के पूर्व कठोर लगता है, लेकिन वही आचरण अभ्यास के बाद उसी व्यक्ति को सरल लगता है। जैन-साधु अपने केशों का मुण्डन नहीं करवाते, वरन् अपन हाथों से उखाड़ते हैं। नवदीक्षित साधु इसमें पीड़ा का अनुभव करते हैं, लेकिन 2-4 वर्षों के पश्चात् देखने में आता है कि उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। वे हँसते-हँसते केशलुंचन कर लेते हैं। सामान्य व्यक्ति के लिए एक समय का भोजन छोड़ देना कठिन मालूम होता है, लेकिन ऐसे लोग भी देखने में आते हैं, जो 8-10 दिन तक निराहार और निर्जल रहकर भी जीवन के सामान्य क्रमों का यथावत् सम्पादन करते हैं। कठोरता का मापदंड स्थिर नहीं रखा जा सकता, वह तो व्यक्ति के साहस, अभ्यास और क्षमता पर निर्भर है।
जो लोग जैनाचार-विधि को अत्यन्त कठोर बताते हैं, उनका मापदंड अपना है। वे अभ्यास या आत्मसाहस की हीनता में ऐसा समझ बैठे हैं। वे स्वयं को उस परिस्थिति में रखने के बाद विचार करें, तो उन्हें कठिन नहीं लगेगा।
___ जैनाचार-विधि में श्रमण के सामान्य आचरणात्मक-सिद्धान्तों पर किए जाने वाले आक्षेपों में प्रथम आक्षेप उसकी निवृत्तिपरकता पर किया जाता है। पाश्चात्य-विचारकों ने इस वैराग्यवादी-धारणा की कटु आलोचना की है। उसे व्यक्ति की सांसारिक-परिस्थितियों से समायोजित करने की क्षमता का अभाव माना है। उनकी दृष्टि में निवृत्तिपरक आचारव्यवस्था एक प्रकार की नैराश्यवादी-मान्यता है, जो व्यक्ति के साहस को कुंठित करती है। इसे मानव-जाति के विकास के हेतु घातक माना गया है और पलायनवादी मनोवृत्ति कहकर इसकी आलोचना की गई है।
इस आक्षेप के उत्तर के पूर्व हमें निवृत्ति के वास्तविक रूप को जानना होगा। निवृत्त का अर्थ है-अशुभ, पापकारी या हिंसक कार्यों से दूर होना । जैन ही क्यों, किसी भी निवृत्तिपरक आचार-व्यवस्था ने कभी शुभ, अहिंसक, परोपकारी कार्यों का निषेध नहीं किया है। निवृत्ति का अर्थ संसार से या समाज से पलायन नहीं है। सामान्य विचारक को वह संसार से पलायन इसलिए दिखाई देता है कि इस जगत् में प्रवृत्ति के नाम पर जो स्वार्थ एवं स्वहित की धारणा और हिंसक-आचरण का वर्चस्व है, साधक उससे अपने को दूर कर
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