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श्रमण-धर्म
स्त्री की उपस्थिति में ही बैठे। 182 इस प्रकार, जैन और बौद्ध परम्पराएं भिक्षु और भिक्षुणियों के पारस्परिक-संबंध में काफी सतर्कता रखती है और विशेष प्रसंगों के अतिरिक्त उनके पारस्परिक संबंधों का नियमन करती है ।
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भिक्षुणी - संघ के पदाधिकारी - जैन- परम्परा में साध्वी- संघ यद्यपि आचार्य की आज्ञा में ही रहता है, तथापि भिक्षुणी - संघ की आन्तरिक व्यवस्था के लिए कुछ पृथक् पदों की व्यवस्था है। भिक्षुणी-संघ में प्रमुखतया प्रवर्त्तनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और प्रतिहारी- पदों की व्यवस्था है । प्रायश्चित्त-विधान ( दण्ड - व्यवस्था )
व्रतों में लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लिया जाता है। संघ - व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए भी यह आवश्यक है कि संघ एवं भिक्षुजीवन के विभिन्न नियमों के भंग पर प्रायश्चित्त या दण्ड दिया जाए। श्वेताम्बर - परम्परा में जीतकल्पसूत्र के अनुसार दस प्रकार के प्रायश्चित्त या दण्ड माने गए हैं - (1) आलोचना, ( 2 ) प्रतिक्रमण, (3) उभय, (4) विवेक, (5) व्युत्सर्ग, (6) तप, (7) छेद, (8) मूल, (9) अनवस्थाप्य और (10) पारांचिक | 183 दिगम्बर- परम्परा के मूलाचार ग्रंथ में भी दस प्रकार के प्रायश्चित्त वर्णित हैं । प्रारम्भ के आठ वहीं हैं, जो श्वेताम्बर - परम्परा में हैं, शेष दो परिहार और श्रद्धान हैं । सम्भवतः, अन्तिम दो प्रायश्चित्तों का प्रचलन बन्द हो जाने से नामों का यह अन्तर आया हो, यद्यपि पारांचिक - प्रायश्चित्तों और परिहार का तात्पर्य एक ही है। उपर्युक्त प्रायश्चित्तों
क्रम है, जो कि आपराधिक गुरुता को सूचित करता है।
दैनंदिन जीवन की सामान्य प्रवृत्तियों में लगनेवाले दोषों के लिए आलोचनाप्रायश्चित्त का विधान है। आलोचना का अर्थ अपराध को अपराध के रूप में स्वीकार
करना है ।
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प्रमाद, आसातना, अविनय, हास्य, विकथा आदि के लिए प्रतिक्रमण-प्रायश्चित्त का विधान है। प्रतिक्रमण का तात्पर्य है उन दोषों को दोषरूप मानकर पुनः उन्हें नहीं करने का निश्चय करना । आलोचना और प्रतिक्रमण में अन्तर यह है कि आलोचना में अपराध के पुनः सेवन नहीं करने का निश्चय नहीं होता है, जबकि प्रतिक्रमण में ऐसा निश्चय करना होता है।
अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, कटु भाषण, दुश्चेष्टा आदि अपराधों के लिए आलोचना और प्रतिक्रमण- दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है।
आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण में लगे हुए दोषों के लिए विवेक प्रायश्चित्त का विधान है। विवेक नामक प्रायश्चित्त का सामान्य अर्थ यह हो सकता है कि भविष्य में उस
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