________________
भारतीय-दर्शन में सामाजिक-चेतना
179
यह माना जाता है कि राग से मुक्ति या आसक्ति की समाप्ति तभी सम्भव है, जबकि व्यक्ति अपने को सामाजिक-जीवन से या पारिवारिक-जीवन से अलग कर ले, किन्तु यह एक भ्रान्त धारणा ही है । न तो सम्बन्ध तोड़ देने मात्र से राग समाप्त हो जाता है, न राग के अभाव-मात्र से सम्बन्ध टूट जाते हैं । वास्तविकता तो यह है कि राग या आसक्ति की उपस्थिति में हमारे यथार्थ सामाजिक-संबंध ही नहीं बन पाते । सामाजिक-जीवन और सामाजिक-संबंधों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है । सामान्यतया, राग द्वेष का सहगामी होता है और जब सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़े होते हैं, तो इन संबंधों से टकराहट एवं विषमता स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। बोधिचर्यावतार में आचार्य शान्तिदेव लिखते हैं
उपद्रवा ये च भवन्ति लोके यावन्ति दुःखानि भयानि चैव। सर्वाणि तान्यात्मपरिग्रहेण तत् किं ममानेन परिग्रहेण ॥ आत्मानमपरित्यज्य दुःखं त्यक्तुं न शक्यते।
यथाग्निमपरित्यज्य दाहं त्यक्तुं नशक्यते।" संसारके सभी दुःख और भय एवं तजन्य उपद्रव ममत्व के कारण होते हैं । जब तक ममत्व-बुद्धि का परित्याग नहीं किया जाता, तब तक इन दुःखों की समाप्ति सम्भव नहीं है, जैसे अग्नि का परित्याग किए बिना तज्जन्य दाह से बचना असम्भव है। राग हमें सामाजिकजीवन से जोड़ता नहीं है, अपितु तोड़ता ही है। राग के कारण मेरा या ममत्व-भाव उत्पन्न होता है। मेरे संबंधी, मेरी जाति, मेराधर्म, मेरा राष्ट्र-ये विचार विकसित होते हैं और उसके परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और संकुचित राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज मानव-जाति के सुमधुर सामाजिक-सम्बन्धों में ये ही सबसे अधिक बाधक तत्त्व हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं। वे ही आज की विषमता के मूल कारण हैं। भारतीय-दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिकता की एक यथार्थ दृष्टि ही प्रदान की है। प्रथम तो यह कि राग किसी पर होता है और जो किसी पर होता है, वह सब पर नहीं हो सकता है, अतः राग से ऊपर उठे बिना या आसक्ति को छोड़े बिना सामाजिकता की सच्ची भूमिका प्राप्त नहीं की जा सकती। सामाजिक-जीवन की विषमताओं का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा ही है। व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है, उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक-जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किए जाते हैं, जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org