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गृहस्थ-धर्म
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आदि और स्पर्श, रसना, नासिका, चक्षु और कर्ण-ऐसी पाँच इन्द्रियों वाले पशु-पक्षी एवं मनुष्यादि त्रस जीव हैं । गृहस्थ-साधक इन त्रस जीवों की हिंसा का परित्याग करता है, जबकि श्रमण-साधक बस और स्थावर, सभी प्रकार के प्राणियों की हिंसा का परित्याग करता है। गृहस्थ-साधक भोजन आदि के पकाने तथा आजीविका-उपार्जन आदि कार्यों में एकेन्द्रिय स्थावर प्राणी-हिंसा से बच नहीं सकता, अतः उसके लिए त्रस प्राणियों की हिंसा का परित्याग कर देना ही पर्याप्त समझा गया।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि क्या गृहस्थ-साधक के लिए स्थावर प्राणियों को हिंसा से निवृत्त होने का कोई विधान नहीं है ? बात ऐसी नहीं है। हिंसा अशुभ है, फिर वह स्थावर प्राणियों की हो, अथवा सप्राणियों की और जो अशुभ है, वह परित्याज्य है ही। गृहस्थ-साधक के लिए स्थावर प्राणियों की हिंसा का जो निषेध नहीं किया गया है, इसका कारण इतना ही है कि गृहस्थ अपने गृहस्थ-जीवन में इससे पूर्णतया बच नहीं सकता। उसमें उसे जो छूट दी गई है, उसका मात्र अभिप्राय यही है कि वह अपनी पारिवारिक जीवन-चर्या का निर्वाह कर सके। गृहस्थ-साधक को भी अनावश्यक रूप में स्थावर प्राणियों की हिंसा करने का तो निषेधही किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं- “अहिंसा-धर्म का ज्ञाता और मुक्ति का अभिलाषी श्रावक स्थावर जीवों की भी निरर्थक हिंसा नहीं करे।"37_
जैनाचार-दर्शन में गृहस्थ त्रस प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होने के लिए भी जो प्रतिज्ञा लेता है, वह सशर्त है। उसकी दो शर्ते हैं - प्रथम तो यह कि वह मात्र निरपराध त्रस प्राणियों की हिंसा का परित्याग करता है, सापराधी त्रस प्राणी की हिंसा का नहीं। दूसरे, वह संकल्पपूर्वक त्रस-हिंसा का प्रत्याख्यान करता है, बिना संकल्प के हो जाने वाली त्रसहिंसा का नहीं। सापराधी वह प्राणी है, जो हमारे शरीर, परिवार, समाज, अथवा हमारे आश्रित प्राणी का कोई अनिष्ट करना चाहता है, अथवा करता है। अन्यायी एवं आक्रमणकारी व्यक्ति अपराधी है। गृहस्थ-साधक ऐसे प्राणियों की हिंसा से विरत नहीं होता। अन्याय के प्रतिकार और आत्म-रक्षा के निमित्त यदि त्रस-हिंसा अनिवार्य हो, तो ऐसा कर गृहस्थसाधक अपने साधना-पथ से विचलित नहीं होता। महाराजा चेटक और मगधाधिपति अजातशत्रु (कुणिक) के युद्ध-प्रसंग को लेकर स्वयं महावीर ने अन्याय के प्रतिकार के निमित्त की गई हिंसा के आधार पर महाराज चेटक को आराधक माना, विराधक नहीं । अन्यायी और आक्रमणकारी के प्रति की गई हिंसा से गृहस्थ का अहिंसा-व्रत खण्डित नहीं होता है, ऐसा जैन-ग्रन्थों में विधान है। निशीथचूर्णि तो यहां तक कहती है कि ऐसी अवस्था में गृहस्थ का तो क्या, साधु का भी व्रत खण्डित नहीं होता है। इतना ही नहीं, अन्याय का प्रतिकार न करनेवाला साधक स्वयं दण्ड (प्रायश्चित्त) का भागी बनता है।
वस्तुतः, गृहस्थ-साधक के लिए जिस हिंसा का निषेध किया गया है, वह है
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