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श्रमण-धर्म
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ही परम्पराएं भिक्षु के लिए नृत्य-गान आदि को वर्जित मानती है।
8.माल्यगंधधारण-विलेपनविरमण-बौद्ध-परम्परा में उपोसथ-शीलधारण करने वाले गृहस्थ एवं भिक्षु-दोनों के लिए ही माला आदि का धारण करना, सुगन्धित पदार्थों का विलेपन करना, शरीर - श्रृंगार और आभूषण धारण करना वर्जित है। जैनपरम्परा में भी मुनि एवं प्रोषधव्रती-गृहस्थ के लिए इन्हें वर्जित माना गया है, यद्यपि जैनपरम्परा में भिक्षु के लिए इस सम्बन्ध में किसी स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था नहीं है, जैन-परम्परा इन्हें ब्रह्मचर्य-महाव्रत के अन्तर्गत ही मान लेती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि ब्रह्मचर्यरत भिक्षु शरीर की विभूषा - शोभा बढ़ाना और श्रृंगार करना आदि न करे । नैतिक-जीवन के लिए इनका परित्याग दोनों ही परम्पराओं में आवश्यक है।
9. उच्चशय्या, महाशय्या-विरमण-बौद्ध-भिक्षु के लिए गद्दी-तकियों से युक्त उच्चशय्या पर सोना वर्जित है। बौद्ध और जैन-दोनों ही परम्पराएँ भिक्षु के लिए काठ के बने तख्त, भूमि अथवा कुश या पराल की शय्याओं का ही विधान करती है। संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि भिक्षुओं ! इस समय भिक्षु लोग लकड़ी के बने तख्त पर सोते हैं, अपने उद्योग में आतापी और अप्रमत होकर विहार करते हैं। पाप मार इनके विरुद्ध कोई दावपेंच नहीं पा रहा है। भिक्षुओं! भविष्यकाल में भिक्षु लोग गद्देदार बिछावन पर गुलगुल तंकिए लगाकर दिन चढ़ जाने तक सोए रहेंगे। उनके विरुद्ध पाप मार दाँवपेंच कर सकेगा। भिक्षुओं! इसलिए तुम्हें यह लकड़ी के बने हुए तख्त पर सोना, अपने उद्योग में आतापी होकर और अप्रमत्त होकर विहार करना सीखना चाहिए। जैन-आगम आचारांगसूत्र में भी मुनि को कैसी शय्या पर सोना चाहिए, इसका सुविस्तृत स्पष्ट विवेचन है। सामान्यतया, जैन-मुनि के लिए भी यह निर्देश है कि उसे तृण की, पत्थर की, शिला की या लकड़ी के तख्त की शय्या पर सोना चाहिए !
___10. जातरूपरजतविरमण- बौद्ध भिक्षु के लिए भी परिग्रह रखना वर्जित है। सुत्तनिपात में कहा गया है कि मुनि परिग्रह में लिप्त न हो, क्योंकि जो मनुष्य खेती, वास्तु, हिरण्य (स्वर्ण एवं रजत), गो, अश्व, दास आदि अनेक पदार्थों की लालसा करता है, उसे वासनाएँ दबाती हैं और बाधाएँ मर्दन करती हैं, तब वह पानी में टूटी नाव की तरह दुःख में पड़ता है। जो इच्छाओं के वशीभूत हैं, उनकी मुक्ति अति कठिन है। सामान्यतया, बौद्धपरम्परा में भी इस शील का प्रमुख उद्देश्य आसक्ति से बचना ही है। बुद्ध ने भी भिक्षुओं के परिग्रह को अत्यन्त सीमित करने का प्रयास किया है। बौद्ध-भिक्षु के लिए स्वर्ण-रजत आदिधातुओं का ग्रहण सर्वथा वर्जित है। इतना ही नहीं, बौद्ध-भिक्षुको जीवनयापन के लिए जिन वस्त्र-पात्र आदि वस्तुओं की आवश्यकता होती है, उन्हें भी सीमा से अधिक
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