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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
लेकिन मूल मन्तव्य यही है कि श्रमण अथवा संन्यासीको मन, वचन और शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों का नियमन करना चाहिए।
पाँचसमितियाँ-समिति शब्द की व्याख्या सम्यक्-प्रवृत्ति के रूप में की गई है। समिति श्रमण - जीवन की साधना का विधायक-पक्ष है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, समितियाँ आचरण की प्रवृत्ति के लिए है। 119 श्रमण-जीवन में शरीर-धारण के लिए अथवा संयम के निर्वाह के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं, उनको विवेकपूर्वक संपादित करना ही समिति है। समितियाँ पाँच हैं - 1. ईर्या (गमन), 2. भाषा, 3. एषणा (याचना), 4. आदानभण्डनिक्षेपण और 5. उच्चारादि-प्रतिस्थापन । 120
1. ईर्या-समिति- प्राणियों की रक्षा करते हुए सावधानीपूर्वक आवागमन की क्रिया करना ईर्या-समिति है। श्रमण के लिए यह आवश्यक है कि उसकी आवागमन की क्रिया इस प्रकार हो, जिसमें यथासंभव प्राणीहिंसा न हो । सामान्य रूप से श्रमण को चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलना चाहिए तथा दिन में ही चलना चाहिए, सूर्यास्त के पश्चात् नहीं, 121 क्योंकि यदि वह सामने देखकर नहीं चलेगा और रात्रि में आवागमन की क्रिया करेगा, तो उसमें प्राणीहिंसा की सम्भावना रहेगी।मुनि के लिए चलते समय बातचीत करना, पढ़ना, चिंतन करना आदि क्रियाएँ भी निषिद्ध हैं । यदि वह उपर्युक्त क्रियाएँ करते हुए चलेगा, तो वह सावधानीपूर्वक आवागमन नहीं कर सकेगा । कहा गया है कि मुनि को चलते समय पाँचों इन्द्रियों के विषयों तथा पाँचों प्रकार के स्वाध्यायों को छोड़कर, मात्र चलने की क्रिया में ही लक्ष्य रखकर चलना चाहिए। 122 आचारांगसूत्र में इसकी विस्तार से चर्चा है। नीचे उसी आधार पर कुछ प्रमुख नियम प्रस्तुत हैं -
1. चलते समय सावधानीपूर्वक सामने की भूमि को देखते हुए चलना चाहिए। 2. चलते समय हाथ-पैरों को आपस में टकराना नहीं चाहिए। 3. भय और विस्मय तजकर चलना चाहिए। 4. भाग-दौड़ न करके मध्यम गति से चलना चाहिए।
5. चलते समय पाँवों को एक-दूसरे से अधिक अन्तर पर रखकर नहीं चलना चाहिए।
6. हरी वनस्पति, तृण-पल्लव आदि से एक हाथ दूर चलना चाहिए।
7. प्राणियों, वनस्पति और जल जीवों की हिंसा की संभावना से युक्त छोटे रास्ते से न चलकर इनसे रहित लम्बे मार्ग से ही जाना चाहिए।
8. यदि वर्षा के कारण मार्ग में छोटे-छोटे जीव-जन्तु और वनस्पति उत्पन्न हो गई हो, अंकुर फूट निकले हों, तो मुनि भ्रमण रोककर चातुर्मास-अवधि तक एक ही स्थान पर रहे।
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