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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
17. तृण-परीषह- तृण आदि की शय्या में सोने से तथा मार्ग में नंगे पैर चलने से तृण या काटे आदि के चुभने की वेदना को समभाव से सहन करे।
___18. मल-परीषह - वस्त्र या शरीर पर पसीने एवं धूल आदि के कारण मैल जम जाए, तो भी उद्विग्न न होकर उसे सहन करे।
19. सत्कार-परीषह - जनता द्वारा मान-सम्मान के प्राप्त होने पर भी प्रसन्न या खिन्न न होकर समभाव रखे।
20. प्रज्ञा-परीषह- भिक्षु के बुद्धिमान् होने के कारण लोग आकर उससे विवादादि करें, तो भी खिन्न होकर यह विचार नहीं करे कि इससे तो अज्ञानी होना अच्छा था।
21. अज्ञान-परीषह-यदि भिक्षु की बुद्धि मन्द हो और शास्त्र आदि का अध्ययन न कर सके, तो भी खिन्न नहीं होते हुए अपनी साधना में लगे रहना चाहिए।
22. दर्शन-परीषह-अन्य सम्प्रदायों और उनके महन्तों का आडम्बर देखकर यह विचार नहीं करना चाहिए कि देखो इनकी कितनी प्रतिष्ठा है और शुद्ध मार्ग पर चलते हुए
भी मेरी कोई प्रतिष्ठा नहीं है। इस प्रकार, आडम्बरों को देखकर उत्पन्न हुई अश्रद्धा को मिटाना दर्शन-परीषह है।
बौद्ध-परम्परा और परीषह- भगवान् बुद्ध ने भी भिक्षु- जीवन में आने वाले कष्टों को समभावपूर्वक सहन करने का निर्देश दिया है। अंगुत्तरनिकाय में वे कहते हैं - भिक्षुओं! जो दुःखपूर्ण, तीव्र, प्रखर, कटु, प्रतिकूल, बुरी, प्राणहर शारीरिक-वेदनाएँ हों, उन्हें सहन करने का प्रयत्न करना चाहिए ।155 सुत्तनिपात में भी वे कहते हैं कि धीर, स्मृतिवान्, संयत आचरणवाला भिक्षु डसने वाली मक्खियों से, सों से, पापी मनुष्यों के द्वारा दी जाने वाली पीड़ा से तथा चतुष्पदों से भयभीत न हो दूसरी सभी बाधाओं का सामना करे। रोग-पीड़ा, भूख-वेदना तथा शीत-उष्ण को सहन करे। अनेक प्रकार से पीड़ित होने पर भी वीर्य तथा पराक्रम को दृढ़ करे । 156 संयुत्तनिकाय में भिक्षु के सत्कार-परीषह के सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस प्रकार केले का फल केले को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार सत्कार-सम्मान कापुरुष को नष्ट कर देता है, अतः सत्कार पाकर भिक्षु प्रसन्न न हो। 157
इस प्रकार, बौद्ध-परम्परा में भी भिक्षु का कष्टसहिष्णु होना आवश्यक है। इतना ही नहीं, बुद्ध ने कष्टसहिष्णुता के लिए परीषह शब्द का प्रयोग भी किया है, 158 फिर भी परीषह के सम्बन्ध में जैन और बौद्ध-परम्पराओं में थोड़ा अन्तर है। जैन-परम्परा में परीषह सहन करना निर्वाणमार्ग में एक साधक-तत्त्व ही समझा गया है, जबकि बौद्ध-परम्परा उसे निर्वाण-मार्ग का बाधक-तत्त्व समझती है और उन्हें दूर करने का निर्देश भी देती है। बौद्धआचार्यों ने परीषह (परिस्सया) का अर्थ बाधा ही किया है। सुत्तनिपात में बुद्धवचन है कि
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