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भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
योग्य दोष माना गया है। इतना ही नहीं, बौद्ध भिक्षु को गृहस्थ-जीवन सम्बन्धी कार्यों में अनुमति हो, ऐसी भाषा भी नहीं बोलना चाहिए। गृहस्थोचित भाषा बोलना भी भिक्षु के लिए वर्जित है । " भिक्षु को सदैव ही कठोर वचन का परित्याग कर नम्र एवं मधुर वचन ही बोलना चाहिए। बुद्ध ने अनेक सन्दर्भों में भिक्षु कैसी भाषा बोले, इसका निर्देश किया है, लेकिन विस्तारभय से यहाँ उसकी समग्र चर्चा में जाना संभव नहीं है।
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5. सुरामेरयमद्यविरमण - बौद्ध भिक्षु तथा गृहस्थ- दोनों के लिए ही सुरापान, मद्यपान एवं नशीली वस्तुओं का सेवन वर्जित है। जैन - परम्परा में भी गृहस्थ एवं मुनि- दोनों
लिए मद्यपान वर्जित है। जैन परम्परा में मद्यपान से विरत होना साधक के लिए आवश्यक है, जब तक कोई भी व्यक्ति इससे विरत नहीं होता है, वह धर्ममार्ग में प्रवेश पाने का अधिकारी नहीं है ।
6. विकालभोजनविरमण - विकाल - भोजनविरमण बौद्ध भिक्षु एवं उपोसथव्रत लेने वाले गृहस्थ के लिए आवश्यक है। भिक्षुओं के लिए विकालभोजन एवं रात्रि-भोजन को त्याज्य बताया गया है । मज्झिमनिकाय में बुद्ध कहते हैं, "हे भिक्षुओं! मैने रात्रि - भोजन को छोड़ दिया है, उससे मेरे शरीर में व्याधि कम हो गई है, जाड्य कम हो गया है, शरीर में बल आया है; चित्त को शांति मिली है। हे भिक्षुओं! तुम भी ऐसा ही आचरण रखो । यदि तुम रात्रि में भोजन करना छोड़ दोगे, तो तुम्हारे चित्त को शांति मिलेगी।" बौद्ध - परम्परा में दिन के बारह बजे के पश्चात् से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय के पूर्व तक का समय 'विकाल' माना जाता है। इस समय के बीच भोजन करना बौद्ध भिक्षु के लिए वर्जित है। सामान्यतया, बौद्ध भिक्षु के लिए भी एक ही समय भोजन करने का विधान है।
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7. नृत्यगानवादित्रविरमण - नृत्य, गान एवं वाद्यवादन बौद्ध भिक्षु के लिए वर्जित है । अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि भिक्षुओं ! यह जो गाना है, वह आर्य-विनय के अनुसार रोना ही है, भिक्षुओं ! यह जो नाचना है, वह आर्य-विनय के अनुसार पागलपन
है, भिक्षुओं ! यह जो देर तक दाँत निकालकर हँसना है, यह आर्यविनय के अनुसार बचपन ही है, इसलिए भिक्षुओं! यह जो गाना है, यह सेतु (का) घातमात्र ही है, यह जो नाचना है, यह सेतु (का) घातमात्र ही है। धर्मानन्दी सन्त पुरुषों का मुस्कराना ही पर्याप्त है । " जैन- परम्परा के अनुसार भी भिक्षु के लिए नृत्य-गान आदि वर्जित हैं, यद्यपि जैनपरम्परा में इसके लिए किसी स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था नहीं है। उत्तराध्ययन में भी कहा है कि सभी गान विलापरूप हैं, सभी नृत्य विडंबनाएँ हैं, सभी आभूषण भाररूप हैं और सभी काम दुःखदायक हैं। अज्ञानियों के प्रिय किन्तु अन्त में दुःख देनेवाले कामगुणों में वह सुख नहीं है, जो कामविरत शीलगुण में रत भिक्षु को होता है। 7 इस प्रकार, हम देखते हैं कि दोनों
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