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गृहस्थ-धर्म
तीन गुणव्रत
6. दिशा - परिमाण - व्रत
उपासकदशांग - सूत्र में परिग्रह - परिमाण और दिशा - परिमाण - व्रतों को इच्छापरिमाण नामक व्रत के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिया गया है। यद्यपि अतिचारों की विवेचना
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उन्हें अलग-अलग रखा गया है, किन्तु परवर्ती समग्र साहित्य में उन्हें अलग-अलग ही माना गया है। तृष्णा असीम है, वह मनुष्य को सम्पूर्ण विश्व का स्वामी देखना चाहती है। मनुष्य युगों से तृष्णा की पूर्ति के प्रयास में दिग्-दिगन्त में भटकता रहा है। राज्य-तृष्णा ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया। धनार्जन की तृष्णा ने व्यावसायिक क्षेत्रों का विस्तार किया एवं व्यावसायिक हितों की सुरक्षा के नाम पर उपनिवेशवाद की नींव पड़ी । धनार्जन के लोभ में मनुष्य कहाँ नहीं भटका । जैन-दर्शन मानव की ऐसी स्वार्थमूलक वृत्तियों के निरोध
लिए क्षेत्र को सीमित करने की बात कहता है। गृहस्थ-जीवन में धनार्जन और व्यवसाय आवश्यक हैं, लेकिन व्यवसाय के नाम पर अविकसित राष्ट्रों का निरंकुश शोषण चलने देना उचित नहीं । जैन - आचार - दर्शन जहाँ परिग्रह-परिमाण - व्रत के आधार पर सम्पत्ति के द्वारा होने वाले शोषण के नियन्त्रण का विधान करता है, वही दिशामर्यादाव्रत के द्वारा दूरस्थ भागों एवं विदेशों में व्यवसायों के द्वारा होने वाले शोषण को सीमित करता है। जैन आचार-दर्शन श्रमण - जीवन के लिए दिशा-मर्यादा का विधान नहीं करता, क्योंकि श्रमण का विहार लोक-कल्याण के लिए होता है, लेकिन गृहस्थ का अधिकांश भ्रमण वाणिज्य और व्यवसाय के नाम पर उत्पन्न अर्थ-लोलुपता तथा वासनाओं की पूर्ति के निमित्त होता है । वह पापकारी प्रवृत्तियों के लिए, शोषण के लिए अथवा आधिपत्य के लिए भटकता है, अतः उसकी इस तृष्णामूलक शोषण-वृत्ति पर अंकुश लगाना आवश्यक था । श्रावक का दिशा - परिमाण - व्रत इसी उद्देश्य से है कि मनुष्य की उद्दाम वासनाओं को नियन्त्रित किया जा सके। इस व्रत को ग्रहण करते समय गृहस्थ-साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि विभिन्न दिशाओं में निश्चित सीमा-मर्यादाओं, उदाहरणार्थ, एक-एक सौ कोस के बाहर वह व्यवसाय, वाणिज्य एवं अन्य स्वार्थमूलक पापकारी प्रवृत्तियाँ नहीं करेगा। उसके व्यावसायिक वाहन, जिनकी संख्या वह निश्चित कर चुका है, व्यवसाय के लिए उन दिशाओं की निश्चित की गई सीमाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे। इस व्रत में निम्न दिशाओं की मर्यादा की जाती है - (1) उर्ध्वदिशा - ऊपर की ओर जाने की सीमा मर्यादा, जैसेपहाड़ की अमुक ऊँचाई तक ( वर्त्तमान सन्दर्भ में ग्रह, नक्षत्र आदि पर जाने की सीमामर्यादा)। (2) अधोदिशा - नीचे की ओर, जैसे- खदान आदि में अमुक गहराई तक जाने सीमा - मर्यादा । (3) तिर्यदिशा - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और उनके कोणों में गमनागमन की मर्यादा
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