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गृहस्थ-धर्म
के साथ समागम करना।
इस प्रकार, गृहस्थ के लिए रखैल, वाग्दत्ता अथवा अल्पवयस्का पत्नी के साथ मैथुन करने का निषेध किया गया है।
2. अपरिगृहीतागमन - अपरिगृहीता, अर्थात् वह स्त्री, जिस पर किसी का अधिकार नहीं है, अर्थात् वेश्या । वेश्या के साथ समागम करना- यह अपरिगृहीतागमन है । कुछ आचार्य अपरिगृहीत का अर्थ करते हैं - किसी के द्वारा ग्रहण नहीं की गई, अर्थात् कुमारी। दूसरे कुछ आचार्य व्यक्ति की अपेक्षा से पर- स्त्री को भी उसके द्वारा परिगृहीत नहीं होने के कारण अपरिगृहीत मानकर इससे पर-स्त्रीगमन का अर्थ लेते हैं, अतः वेश्या, कुमारी अथवा परस्त्री से काम-सम्बन्ध रखना व्रती - गृहस्थ के लिए निषिद्ध है ।
3. अनंगक्रीड़ा - मैथुन के स्वाभाविक अंगों से काम-वासना की पूर्ति न करके अप्राकृतिक अंगों, जैसे- हस्त, मुख, गुदादि, बाह्य - उपकरणों जैसे-चर्म आदि से वासना की पूर्ति करना, अथवा समलिंगी से मैथुन या पशुओं के साथ मैथुन करना आदि। गृहस्थसाधक को वासनापूर्ति के ऐसे अप्राकृतिक कृत्यों से बचना चाहिए ।
4. परविवाहकरण - गृहस्थ जीवन में व्यक्ति को अपने परिवार के सदस्यों का विवाह-संस्कार करना होता है, लेकिन यदि गृहस्थ-साधक स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह सम्बन्ध या नाते-रिश्ते करवाने की प्रवृत्ति में रुचि लेता रहे, तो वह कार्य उसकी भोगाभिरुचि को प्रकट करेगा और मन की निराकुलता में बाधक होगा, अतः गृहस्थ-साधक के लिए स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह - सम्बन्ध कराने का निषेध है ।
5. कामभोग - तीव्राभिलाषा- कामवासना के सेवन की तीव्र इच्छा रखना, अथवा कामवासना के उत्तेजन के लिए कामवर्द्धक औषधियों व मादक द्रव्यों का सेवन करना गृहस्थ के लिए निषिद्ध है, क्योंकि तीव्र कामासक्ति और तज्जनित मानसिक-आकुलता विवेक को भ्रष्ट कर साधक को साधना-पथ से च्युत कर देती है ।
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बौद्ध आचार-दर्शन भी जहाँ भिक्षु–भिक्षुणी के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का विधान करता है, वहाँ गृहस्थ-साधक के लिए स्वपत्नी अथवा स्वपति तक ही सहवास को सीमित करने का विधान करता है । सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं, यदि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो सके, तो कम-से-कम पर-स्त्री का अतिक्रमण न करें। 48 धम्मपद में पर-स्त्रीगमन के दोषों को दिखाकर उससे विरत रहने का उपदेश है। भगवान् बुद्ध कहते हैं, "परस्त्री - गामी मनुष्य की चार गतियाँ हैं - 1. अपुण्य का लाभ, 2. सुखपूर्वक निश्चित निद्रा का अभाव, 3. लोक - निन्दा और 4. मृत्यूपरान्त नरकवास, अथवा दूसरे रूप में - 1. अपुण्य - लाभ, 2. पापयोनि की प्राप्ति (बुरी गति), 3. भय के कारण परस्पर अत्यल्परति और 4. राजा के
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