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गृहस्थ-धर्म
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सामान्य वेशभूषा मानी गई है। दर्भ, ऊन या सादे वस्त्र पर उत्तर-पूर्व दिशाओं में अभिमुख होकर जिन-मुद्रा में खड़े होना या पद्मासन से बैठना ही सामायिक का आसन है। अस्थिर आसन सामायिक का दोष माना गया है। सामायिक की वेशभूषा, उपकरण तथा आसन का सादगीपूर्ण एवं स्वच्छ होना द्रव्यशुद्धि है।
भाव-शुद्धि-द्रव्य-विशुद्धि (साधना के योग्य उपकरण) काल-विशुद्धि (साधना के योग्य समय) और क्षेत्र-विशुद्धि (साधनाके योग्य स्थल)-यह साधना के बहिरंग-तत्त्व हैं और भाव-विशुद्धिसाधना काअंतरंग-तत्त्व है। मन की विशुद्धिही सामायिक की साधना का सार सर्वस्व है। चित्त की विशुद्धि के लिए दो आवश्यक बातें मानी गई हैं - 1. अशुभ विचारों का परित्याग करना और 2. शुभ विचारों को प्रश्रय देना। जैन-विचारधारा में आर्त
और रौद्र-ये दो अशुभ विचार (अप्रशस्त-ध्यान) माने गए हैं। इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, सम्भावित तथा अप्राप्त को प्राप्त करने की चिन्ता, आर्त-विचार हैं तथा दूसरे को दुःख देने का क्रूरतापूर्ण संकल्प रौद्र-विचार है। जैन आचार-दर्शन के अनुसार, सामायिक की साधना में गृहस्थ-साधक को इन अप्रशस्त-विचारों को मन में स्थान नहीं देना चाहिए। इनके स्थान पर मैत्री,प्रमोद, करुणा और मध्यस्थता की प्रशस्त-भावनाओं को प्रश्रय देना चाहिए।
सामायिक-पाठ-श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्पराओं में सामायिक-पाठ भिन्नभिन्न हैं। मूलागमों में गृहस्थ-सामायिक का विस्तृत विधान नहीं मिलता, परम्परागत धारणा ही प्रमुख है। श्वेताम्बर-परम्परा में नमस्कार-मंत्र, गुरुवन्दन-सूत्र, ईर्यापथआलोचन-सूत्र, कायोत्सर्ग, आगारसूत्र, स्तुतिसूत्र, प्रतिज्ञासूत्र, प्रणिपातसूत्र और समाप्ति आलोचना-सूत्र-ये सामायिक-पाठ हैं। दिगम्बर-परम्परा में आचार्य अमितगति के द्वारा रचित बत्तीस श्लोकों का सामायिक-पाठ प्रचलित है, जिसमें आत्मालोचन, आत्मावलोकन तथा मैत्री, करुणा, प्रमोद एवं माध्यस्थ-भावनाओं का सुन्दर चित्र उपस्थित किया गया है।
__ सामायिक-व्रत का सम्यक्रूपेण परिपालन करने के लिए मन, वचन और शरीर के बत्तीस दोषों से बचना भी आवश्यक है। बत्तीस दोषों में दस दोष मन से सम्बन्धित हैं, दस दोष वचन से सम्बन्धित हैं और बारह दोष शरीर से सम्बन्धित हैं।
मन के दस दोष"- (1) अविवेक, (2) कीर्ति की लालसा, (3) लाभ की इच्छा, (4) अहंकार, (5) भय के वश या भय से बचने के लिए साधना करना, अथवा साधना की अवस्था में चित्त का भयाकुल होना, (6) निदान (फलाकांक्षा), (7) फल के प्रति संदिग्धता, (8) रोष, अर्थात् क्रोधादिभावों से युक्त होना, (9) अविनय और (10) अबहुमान, अर्थात् मनोयोगपूर्वक साधना नहीं करना मन से होनेवाले दोष हैं।
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