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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
जिस प्रकार जैन आचार-दर्शन में सम्यक्-श्रद्धा को आवश्यक माना गया है, उसी प्रकार गीता एवं समग्र हिन्दू आचार-दर्शन में भी श्रद्धा को आवश्यक माना गया है। इतनाही नहीं, गीता श्रद्धा पर जैन-विचारणा की अपेक्षा अधिक जोर देती है। गीता में कहा है कि पुरुष श्रद्धामय है। व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है, वैसा ही वह होता है, अर्थात् श्रद्धा के अनुरूप ही उसके चरित्र का निर्माण होता है। जो व्यक्ति श्रद्धा-युक्त है, यद्यपि योगमार्ग (आचरण की दिशा) में प्रयत्न करने वाला नहीं है, अथवा योगमार्ग (आचरण) से भ्रष्ट हो गया है, उसका न तो विनाश होता है और न वह दुर्गति में जाता है, वरन् धीरे-धीरे प्रयत्न करते हुए अनेक जन्मों के अन्त में सिद्धि प्राप्त कर लेता है।100
____ गीता में भी अविरत-सम्यक्दृष्टि नामक उस वर्ग को स्वीकार किया गया है, जो श्रद्धा-समन्वित होते हुए भी आचरण की दिशा में आगे नहीं बढ़ता है। गीताकार ने 'अयतिःश्रद्धयोपेतो' (अयति: अप्रयत्नवान् योगमार्ग)101 कहकर उसका निर्देश किया है।
यद्यपि गीता में जैन-विचारणा-सम्मत सप्त दुर्व्यसनों के त्याग का कोई निर्देश नहीं मिलता, तथापि महाभारत में जुआ, मद्यपान, परस्त्री-संसर्ग और मृगया (शिकार)-इन चार व्यसनों के त्याग का निर्देश है 1021
गीता में जैन-विचारणा की भाँति गृहस्थ-साधक के व्रतों का कोई स्पष्ट विवेचन उपलब्ध नहीं है। गीता में अहिंसा,103 सत्य,10 ब्रह्मचर्य,105 अपरिग्रह106 का सामान्य निर्देश अवश्य है, तथापि वह यह नहीं बताती है कि गृहस्थ-जीवन में इनका पालन किस प्रकार किया जाए। गीता सैद्धान्तिक-रूप में तो उन्हें स्वीकार करती है, फिर भी गृहस्थजीवन के योग्य उनके व्यावहारिक-स्वरूप का उसमें उल्लेख नहीं है। गीता में मात्र सद्गुणों के रूप में उनका उल्लेख किया गया है। गीता ने यह कहकर कि जो गृहस्थ बिना दिए भोग करता है, वह चोर ही है, गृहस्थ के सामाजिक-उत्तरदायित्व को स्पष्ट अवश्य किया है 101
इसी प्रकार, जैन-साधना में गृहस्थ के सात शिक्षाव्रतों के पीछे जिस अनासक्ति की भावना के विकास का दृष्टिकोण है, वही अनासक्ति की वृत्ति गीता का मूल उद्देश्य है। गीता में आहार-विवेक का निर्देश भी उपलब्ध है। गीता ने सात्विक, राजस और तामस-तीन प्रकार के आहारों का विवेचन किया है। जैन-साधना में वर्णित सामायिकव्रत की तुलना गीता के ध्यानयोग की साधना के साथ की जा सकती है। जिस प्रकार सामायिक-व्रत में पवित्र स्थान में सम आसन से मन, वाक् और शरीर का संयम किया जाता है, उसी प्रकार गीता के अनुसार, ध्यानयोग की साधना में भी शुद्ध भूमि पर सम आसन से बैठकर शरीरचेष्टा और चित्तवृत्तियों का संयम किया जाता है। इसी प्रकार, अतिथिसंविभाग-व्रत की जो विवेचना जैन धर्म में उपलब्ध है, वह गीता में भी है। गीता में दान गृहस्थ का एक आवश्यक कर्त्तव्य माना गया है।
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