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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
उस आदर्श की ओर क्रमशः कैसे आगे बढ़े। अतः, यह मानना पड़ेगा कि इन प्रतिमाओं के पीछे दिगम्बर-सम्प्रदाय का जो दृष्टिकोण, या जो दृष्टि है, वह मूलात्मा के निकट एवं वैज्ञानिक है। श्वेताम्बर-परम्परा के आदर्शों में आनन्द आदि श्रावकों का जो वर्णन है, वह भी यही बताता है कि वे क्रमशः विकास की अग्रिम कक्षाओं तक बढ़ते गए, लेकिन पुनः वापस नहीं लौटे। मेरी अपनी दृष्टि में ये प्रतिमाएँ श्रावक-जीवन से श्रमण-जीवन तक उत्तरोत्तर विकास की भूमिकाएँ हैं। यद्यपि गुणस्थान-सिद्धान्त भी नैतिक-विकास की कक्षाओं का विचार करता है , तथापि गुणस्थान-सिद्धान्त से प्रतिमा- सिद्धान्त दो अर्थों में भिन्न है - (1) गुणस्थान-सिद्धान्त में विकास की विवेचना समस्त जीव-जाति को दृष्टि में रखकर की गई है, जबकि प्रतिमा-सिद्धान्त कासम्बन्ध केवल गृहस्थ-उपासक-वर्ग से है। इस प्रकार, इसका क्षेत्र सीमित है। (2) दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि गुणस्थानसिद्धान्त का सम्बन्ध नैतिक-विकास के आध्यात्मिक-पक्ष से है, जबकि उपासक-प्रतिमा
का बाह्य-आचरण से है। ग्यारह प्रतिमाओं कास्वरूप
__ 1. दर्शन-प्रतिमा-साधक की अध्यात्म मार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शनप्रतिमा है। दर्शन का अर्थ है- दृष्टिकोण और आध्यात्मिकविकास के लिए दृष्टिकोण की विशुद्धता प्राथमिक एवं अनिवार्य शर्त है। दर्शन-विशुद्धि की प्रथम शर्त है - क्रोध, मान, माया और लोभ-इस कषायचतुष्क की तीव्रता में मन्दता । जब तक इन कषायों का अनन्तानुबन्धी रूप समाप्त नहीं होता, दर्शनविशुद्धि नहीं होती। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में मानवीय-विवेक को अपहरित कर लेने वाले क्रोधादि संवेगों के तीव्र आवेग ही प्रज्ञा-शक्ति को कुण्ठित कर देते हैं, अतः जब तक इन संवेगों या तीव्र आवेगों पर विजय प्राप्त नहीं की जाती, हमारी विवेकशक्ति या प्रज्ञा सम्यक् रूप से अपना कार्य नहीं कर सकती, जबकि विवेक ही आध्यात्मिकता की प्रथम शर्त है। दर्शनप्रतिमा मेंसाधक इन कषायों की तीव्रताको कम कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। यह गृहस्थ-धर्म की प्रथम भूमिका है, शुभ और अशुभ अथवा धर्म और अधर्म के मध्य यथार्थ विवेक-दर्शन या दृष्टिकोण की विशुद्धि का तात्पर्य है । इस अवस्था में साधक शुभको शुभ और अशुभ को अशुभ के रूप में जानता है, लेकिन उसके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह शुभाचरण करे
ही।
2. व्रत-प्रतिमा-दृष्टिकोण की विशुद्धि के साथ जब साधक सम्यक् आचरण के क्षेत्र में चारित्रविशुद्धि के लिए आगे आता है, तो वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और
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