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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
व्यावहारिक-पक्षों की दृष्टि से विचार किया जाए, तो अनासक्ति सम्यग्दर्शन का, अनेकान्त (अनाग्रह) सम्यग्ज्ञान का और अहिंसा सम्यकचारित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। दर्शन का सम्बन्धवृत्ति से है, ज्ञान का सम्बन्ध विचार से है और चारित्र का कर्म से है, अत: वृत्ति में अनासक्ति, विचार में अनाग्रह और आचरण में अहिंसा, यही जैन आचार-दर्शन के रत्नत्रय का व्यावहारिक-स्वरूप है, जिन्हें हम सामाजिकता के सन्दर्भ में क्रमश: अपरिग्रह, अनेकान्त (अनाग्रह) और अहिंसा के नाम से जानते हैं। अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जब सामाजिक-जीवन से सम्बन्धित होते हैं, तब वेसम्यक-आचरण के ही अंग कहे जाते हैं। दूसरे, जब आचरण से हमारा तात्पर्य कायिक, वाचिक और मानसिक-तीनों प्रकार के कर्मों से हो, तो अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का समावेश सम्यक् आचरण में हो जाता है । सम्यक् आचरण एक प्रकार से जीवन-शुद्धि का प्रयास है, अत: मानसिक-कर्मों की शुद्धि के लिए अनासक्ति (अपरिग्रह), वाचिक-कर्मों की शुद्धि के लिए अनेकान्त (अनाग्रह)
और कायिक-कर्मों की शुद्धि के लिए अहिंसा के पालन का निर्देश किया गया है। इस प्रकार, जैन जीवन-दर्शन का सार इन्हीं तीन सिद्धान्तों में निहित है। जैनधर्म की परिभाषा करने वाला यह श्लोक सर्वाधिक प्रचलित ही है -
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते।
नास्त्यन्यं पीड़नं किंचित् जैनधर्मः स उच्यते॥ सच्चा जैन वही है, जो पक्षपात (समत्व) से रहित है, अनाग्रही और अहिंसक है। यहाँ हमें इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि जिस प्रकार आत्माया चेतना के तीन पक्ष-ज्ञान, दर्शन और चारित्र आध्यात्मिक-पूर्णता की दिशा में एक-दूसरे से अलगअलग नहीं रहते हैं, उसी प्रकार अहिंसा, अनाग्रह (अनेकान्त) और अपरिग्रह भी सामाजिक-समता की स्थापना के प्रयास के रूप में एक-दूसरे से अलग नहीं रहते । जैसेजैसे वे पूर्णता की ओर बढ़ते हैं, वैसे-वैसे एक-दूसरे के साथ समन्वित होते जाते हैं।
अहिंसा जैनधर्म में अहिंसा कास्थान
___ अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण है। अहिंसा वह धुरी है, जिस पर समग्र जैन आचार-विधिघूमती है। जैनागमों में अहिंसा को भगवती कहा गया है। प्रश्नव्याकरण-सूत्र में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, भूखों को जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंसा चर एवं अचर, सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। वह शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थंकर करते हैं। आचारांगसूत्र में कहा गया है - भूत, भविष्य और वर्तमान
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