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सामाजिक-धर्म एवं दायित्व
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सेवकका स्वामी के प्रति प्रत्युपकार-(1) स्वामी के उठने के पूर्व अपने कार्य करने लग जाते हैं । (2) स्वामी के सोने के पश्चात् ही सोते हैं । (3) स्वामी द्वारा प्रदत्त वस्तु काही उपयोग करते हैं। (4) स्वामी के कार्यों को सम्यक् प्रकार से सम्पादित करते हैं। (5) स्वामी की कीर्ति और प्रशंसा का प्रसार करते हैं।
__ श्रमण-ब्राह्मणों के प्रति कर्तव्य-(1) मैत्रीभावयुक्त कायिक-कर्मों से उनका प्रत्युपस्थान (सेवा-सम्मान) करना चाहिए। (2) मैत्रीभावयुक्त वाचिक-कर्म से उनका प्रत्युपस्थान करना चाहिए। (3) मैत्रीभावयुक्त मानसिक-कर्मों से उनका प्रत्युपस्थान करना चाहिए। (4) उनको दान-प्रदान करने हेतु सदैव द्वार खुला रखना चाहिए, अर्थात् दान देने हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिए। (5) उन्हें भोजन आदि प्रदान करना चाहिए।
श्रमण-ब्राह्मणों के प्रत्युपकार- (1) पापकर्मों से निवृत्त करते हैं। (2) कल्याणकारी कार्यों में लगाते हैं। (3) कल्याण (अनुकम्पा) करते हैं। (4) अश्रुत (नवीन) ज्ञान सुनाते हैं। (5) श्रुत (अर्जित) ज्ञान को दृढ़ करते हैं। (6) स्वर्ग का रास्ता दिखाते हैं।
वैदिक-परम्परा में सामाजिक-धर्म-जिस प्रकार जैन-परम्परा में दस धर्मों का वर्णन है, उसी प्रकार वैदिक-परम्परा में मनु ने भी कुछ सामाजिक-धर्मों का विधान किया है, जैसे - 1. देशधर्म 2. जातिधर्म 3. कुलधर्म, 4. पाखण्डधर्म 5. गणधर्म"। मनुस्मृति में वर्णित ये पाँचों ही सामाजिक-धर्म जैन-परम्परा के दस सामाजिक-धर्मों में समाहित हैं। इतना ही नहीं, दोनों में न केवल नाम-साम्य है, वरन् अर्थ-साम्य भी है। गीता में भी कुलधर्म की चर्चा है। अर्जुन कुलधर्म की रक्षा के लिए युद्ध से बचने का प्रस्ताव करता है। जैन और बौद्ध-परम्पराओं के समान वैदिक-परम्पराभी सामाजिक-जीवन के लिए अनेक विधि-निषेधों को प्रस्तुत करती है। वैदिक-परम्परा के अनुसार, माता-पिता की सेवा एवं सामाजिक-दायित्वों को पूरा करना व्यक्ति का कर्तव्य है। देवऋण, पितृऋण और गुरुऋण का विचार तथा अतिथिसत्कार का महत्व-ये बातें स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि वैदिकपरम्परा समाजपरक रही है और उसमें सामाजिक-दायित्वों का निर्वहन व्यक्ति के लिए आवश्यक माना गया है।
सन्दर्भ न्थ1. स्थाना 1 10/760 विशेष विवेचना के लिए देखिए- (अ) धर्म व्याख्या (श्री जवाहरलालजी म.)
(ब) धर्म-दर्शन (श्री शुक्लचन्दजी म.)
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