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गृहस्थ-धर्म
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हेमचन्द्र कितने स्पष्ट शब्दों में साम्प्रदायिक-अभिनिवेश से मुक्त होकर इस आदर्श की वन्दना करता है
भव-बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वां हरो जिनो वा नमस्तस्मै॥ संसार में आवागमन के कारणभूत रागादि जिसके क्षय हो गए हैं, वह चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हरि हो या जिन हो - उसको मेरा नमस्कार है।
वस्तुतः, साधना का लक्ष्य वीतरागता या समत्व की उपलब्धिहै और जो इस समत्व से युक्त है, वीतराग है,वही साधना का आदर्श है।
2. गुरु- साधना के क्षेत्र में पथ-प्रदर्शक नितान्त आवश्यक है। जैन-विचारणा के अनुसार, गुरु आचरण के क्षेत्र में दिशा-निर्देशक का कार्य करता है। गुरु या मार्गदर्शक कौन हो सकता है ? इसके लिए कहा गया है कि जो पाँच इन्द्रियों का संवरण करनेवाला, नौ रक्षापंक्तियों से ब्रह्मचर्य के रक्षण में सदैव जाग्रत; क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों से मुक्त; अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पाँच महाव्रतों से युक्त, पाँच प्रकार के आचार का पालन करने वाला; गमन, भाषण, याचना, निक्षेपण और विसर्जन-इन पाँच समितियों को विवेकपूर्ण ढंग से सम्पादित करनेवाला तथा मन, वचन और काया से संयत होता है, वही गुरु है।
3. धर्म-साधना के क्षेत्र में धर्म या साधना-पथ का चुनाव करना होता है। धर्म के सम्बन्ध में जैन-विचारकों की मान्यता यह है कि स्व-पर कल्याणकारक अहिंसा हीधर्म है (धम्मो दया विसुद्धो)। दशवैकालिकसूत्र के अनुसार, अहिंसा, संयम और तपरूपधर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। जैन-साधना में गृहस्थ-आचार के प्राथमिक नियम (मूलगुण)
श्रावक या गृहस्थ-जीवन में प्रविष्टि के लिए निष्ठा या सम्यक्दर्शन की तो आवश्यकता है ही, लेकिन मात्र निष्ठा एवं विचारशुद्धि ही पर्याप्त नहीं है, अतः जैनाचार्यों ने गृहस्थ-साधक के लिए आचार का एक सरलतम प्रारूप भी निर्धारित किया है, जिसका पालन जैन गृहस्थ-उपासक बनने के लिए अनिवार्य माना जाने लगा है, यद्यपि पूर्ववर्ती आगमों में इसका विवेचन उपलब्ध नहीं है। जैनाचार्यों में भी इस सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय (61) में मद्या, मांस, मधु तथा पंच औदुम्बर फलों के त्याग के रूप में श्रावक के अष्ट मूलगुणों का विधान किया है। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार (66) में पंच अणुव्रतों तथा मद्य, माँस और मधु के त्याग को श्रावकके अष्ट मूलगुण बताया है। आचार्य सोमदेव एवं अमृतचन्द्र ने पंच अणुव्रतों के स्थान
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