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गृहस्थ-धर्म
निम्नतम सीमा है। इसके अतिरिक्त 12 व्रतों एवं 11 प्रतिमाओं का पालन करने वाले तथा श्रावक के आवश्यक गुणों से युक्त रहने वाले गृहस्थ-उपासक भी इसी वर्ग में आते हैं, जो इस वर्ग की अपर सीमा है।
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3. साधक - जो गृहस्थ - उपासक श्रावक के 12 व्रतों एवं 11 प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए जीवन के अन्तिम भाग में संलेखना - व्रत को अंगीकार कर लेता है, अर्थात् आहार आदि का सर्वथा त्याग कर देता है, 18 पापस्थानों से पूर्णतः निवृत्त हो जाता है एवं चित्त की वृत्तियों को अन्तर्मुखी कर आत्मभाव में रमण करता है, वह साधक श्रावक कहा जाता है।
पं. आशाधरजी के द्वारा किया हुआ यह त्रिविध वर्गीकरण अपनी मूल भावनाओं में अविरतसम्यक्दृष्टि और देशविरतसम्यकदृष्टि से भिन्न नहीं है । वस्तुतः, पाक्षिक-श्रावक अविरतसम्यक्दृष्टि का और नैष्ठिक-श्रावक देशविरतसम्यक्दृष्टि का ही नाम है। गुणस्थानसिद्धान्त के अनुसार, साधक जब पाँचवें गुणस्थान से ऊपर उठता है, तो वह गृहस्थ की सीमा से ऊपर उठ जाता है, चाहे वह द्रव्यलिंग (वेशभूषा) की दृष्टि से गृहस्थ- वेश में ही क्यों न हो । साधक श्रावक भी मात्र द्रव्यलिंग की दृष्टि से गृहस्थ कहा जाता है। वस्तुतः, आध्यात्मिक दृष्टि से वह उससे ऊपर होता है ।
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गृहस्थ-धर्म में प्रविष्टि या सम्यक्त्व - ग्रहण
जैन-धर्म में गृहस्थ-जीवन में रहकर साधना की प्रविष्टि का मार्ग सभी जाति, वय एवं वर्ग के लोगों के लिए खुला है। जो मनुष्य साधक-जीवन के आदर्श के रूप में वीतरागअवस्था को, साधना-मार्ग के पथ-प्रदर्शक के रूप से अर्न्तबाह्य-ग्रन्थियों से मुक्त पंच महाव्रतधारी गुरु को और साधना-मा -मार्ग के रूप में वीतराग द्वारा प्रतिपादित अहिंसा-धर्म को अंगीकार करते हैं, वे सभी गृहस्थ-उपासक बन सकते हैं। यह प्रक्रिया जैन-परम्परा में देव, गुरु और धर्म की श्रद्धा के रूप में सम्यक्त्व-ग्रहण के नाम से जानी जाती है। इसमें साधक इस निश्चय को अभिव्यक्त करता है कि 'जीवनपर्यन्त अर्हत् मेरे देव हैं, निर्ग्रन्थ श्रमण मेरे गुरु हैं और वीतरागप्रणीत धर्म मेरा धर्म है' | 2° यह प्रक्रिया सम्यक्त्व-ग्रहण या त्रिनिश्चय कही जाती है।
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सम्यक्त्व-ग्रहण पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार - बौद्ध - परम्परा और गीता में भी श्रद्धा साधना - मार्ग में प्रविष्टि के लिए आवश्यक है। बौद्ध परम्परा में यह प्रक्रिया त्रिशरण ग्रहण कही जाती है, जिसमें व्यक्ति बुद्ध, धर्म और संघ की शरण को अंगीकार करता है । त्रिशरण ग्रहण की प्रक्रिया जैन- परम्परा के त्रिनिश्चय की प्रक्रिया से थोड़ी भिन्न है। प्रथमतः, उसमें संघ के स्थान पर गुरु का स्थान है। दूसरे, उसमें समर्पण नहीं, वरन्
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