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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आए हुए अर्हन्तों (वीतराग पुरुषों) को किसी प्रकार का कष्ट न हो तथा नआए हुए अर्हन्तों को राज्य में आने के लिए प्रोत्साहन मिले, ऐसी सावधानी रखना। बुद्ध ने उपर्युक्त सात अभ्युदय के नियमों का प्रतिपादन किया था और यह बताया था कि यदि (वजी) गण इन नियमों का पालन करता रहेगा, तो उसकी उन्नति होगी, अवनति नहीं।
बुद्ध ने जैसे गृहस्थ-वर्गकी उन्नति के नियम बताए, वैसे ही भिक्षु-संघके सामाजिकनियमों का भी विधान किया, जिससे संघ में विवाद उत्पन्न न हो और संगठन बना रहे। बुद्ध के अनुसार, इन नियमों का पालन करने से संघ में संगठन और एकता बनी रहती है - 1. मैत्रीपूर्ण कायिक-कर्म, 2. मैत्रीपूर्ण वाचिक-कर्म, 3. मैत्रीपूर्ण मानसिक-कर्म, 4. उपासकों से प्राप्त दान का सारे संघ के साथ सम-विभाजन, 5. अपने शील में किंचित् भी त्रुटि नरहने देना और 6. आर्य श्रावक को शोभा देने वाली सम्यक्दृष्टि रखना। इस प्रकार, बुद्ध ने भिक्षु-संघ और गृहस्थ-संघ-दोनों के ही सामाजिक-जीवन के विकास एवं प्रगति के सम्बन्ध में दिशा-निर्देश किया है। इतिवुत्तक में सामाजिक-विघटन या संघ की फूट और सामाजिक-संगठन या संघ के मेल (एकता) के दुष्परिणामों एवं सुपरिणामों की भी बुद्ध ने चर्चा की है।
बुद्ध की दृष्टि में जीवन के सामाजिक-पक्ष का महत्व अत्यन्त स्पष्ट था। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने सामाजिक-जीवन के चार सूत्र प्रस्तुत किए हैं, जो इस प्रकार हैं
1. दानशीलता, 2. स्नेहपूर्ण वचन, 3. बिना प्रतिफल के किया गया कार्य और 4. सभी को एक समान समझना। वस्तुतः, बुद्ध की दृष्टि में यह स्पष्ट था कि ये चारों ही सूत्र ऐसे हैं, जो सामाकि-जीवन के सफल संचालन में सहायक हैं। सभी को एक समान समझना सामाजिक-न्याय का प्रतीक है और बिना प्रतिफल की आकांक्षा के कार्य करना निष्काम सेवा-भाव का प्रतीक है। इसी प्रकार, दानशीलता सामाजिक-अधिकार एवं दायित्वों की
और स्नेहपूर्ण वाणी सामाजिक सहयोग-भावना की परिचायक है। बुद्ध सामाजिकदायित्वों को पूरी तरह स्वीकार करते हैं और यह स्पष्ट कर देते हैं कि असंयम और दुराचारमय जीवन जीते हुए देशका अन्न खाना वस्तुतः अनैतिक है। असंयमी और दुराचारी बनकर देश का अन्न खाने की अपेक्षाअग्निशिखा के समान तप्त लोहे का गोला खाना उत्तम है (इतिवृत्तक 3/5/50)।
बुद्ध ने सामाजिक-जीवन के लिए सहयोग को आवश्यक कहा है। उनकी दृष्टि में सेवा की वृत्ति श्रद्धा और भक्ति से भी अधिक महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, भिक्षुओं! तुम्हारे माँ नहीं, तुम्हारे पिता नहीं है, जो तुम्हारी परिचर्या करेंगे। यदि तुम एक-दूसरे की परिचर्या नहीं
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