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सामाजिक-धर्म एवं दायित्व
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माता-पिता की सेवा - भक्ति करो ।
25. रगड़े - झगड़े और बखेड़े पैदा करने वाली जगह से दूर रहो, अर्थात् चित्त में क्षोभ
उत्पन्न करने वाले स्थान में न रहो।
आय के अनुसार व्यय करो।
अपनी आर्थिक-स्थिति के अनुसार वस्त्र पहनो ।
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28. धर्म के साथ अर्थ - पुरुषार्थ, काम - - पुरुषार्थ और मोक्ष - पुरुषार्थ का इस प्रकार सेवन करो कि कोई किसी का बाधक न हो ।
29. अतिथि और साधुजनों का यथायोग्य सत्कार करो ।
30. कभी दुराग्रह के वशीभूत न होओ।
31. देश और काल के प्रतिकूल आचरण न करो ।
32. जिनके पालन-पोषण करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर हो, उनका पालनपोषण करो ।
33. अपने प्रति किए हुए उपकार को नम्रतापूर्वक स्वीकार करो ।
34. अपने सदाचार एवं सेवा कार्य के द्वारा जनता का प्रेम सम्पादित करो।
35. लज्जाशील बनो । अनुचित कार्य करने में लज्जा का अनुभव करो।
36. परोपकार करने में उद्यत रहो। दूसरों की सेवा करने का अवसर आने पर पीछे मत
हटो।
उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार-नियम ऐसे हैं, जो जैन-नीति की सामाजिकसार्थकता को स्पष्ट करते हैं । आवश्यकता इस बात की है कि हम आधुनिक- सन्दर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें तथा उन्हें युगानुकूल बनाकर प्रस्तुत करें।
1. बार-बार
बौद्ध - परम्परा में सामाजिक-धर्म - बौद्ध परम्परा में भी धर्म के सामाजिकपहलू पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध ने स्वयं ही सामाजिक प्रगति के कुछ नियमों का निर्देश किया है । बुद्ध के अनुसार, सामाजिक प्रगति के सात नियम हैं एकत्र होना, 2. सभी का एकत्र होना, 3. निश्चित नियमों का पालन करना तथा जिन नियमों का विधान नहीं किया गया है, उनके सम्बन्ध में यह नहीं कहना कि ये विधान किए गए हैं, अर्थात् नियमों का निर्माण कर उन नियमों के अनुसार ही आचरण करना, 4. अपने यहाँ के वृद्ध राजनीतिज्ञों का मान रखना और उनसे यथावसर परामर्श प्राप्त करते रहना, 5. विवाहित और अविवाहित स्त्रियों पर अत्याचार नहीं करना और उन्हें उचित मान देना, 6. नगर के और बाहर के देवस्थानों का समुचित रूप से संरक्षण करना और 7. अपने राज्य में
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