________________
सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
225
13
सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व :
अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
वैयक्तिक एवं सामाजिक-समता के विचलन के दो कारण हैं - एक मोह और दूसरा क्षोभ। मोह (आसक्ति) विचलन का एक आन्तरिक-कारण है, जो राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ (तृष्णा) आदि के रूप में प्रकट होता है । हिंसा, शोषण, तिरस्कार या अन्यायये क्षोभ के कारण हैं, जो अन्तर-मानस को पीड़ित करते हैं । यद्यपि मोह और क्षोभ ऐसे तत्त्व नहीं हैं, जो एक-दूसरे से अलग और अप्रभावित हों, तथापि मोह के कारण आन्तरिक और उसका प्रकटन बाह्य है, जबकि क्षोभ के कारण बाह्य हैं और उसका प्रकटन आन्तरिक है । मोह वैयक्तिक-बुराई है, जो समाज-जीवन को दूषित करती है, जबकि 'क्षोभ' सामाजिक-बुराई है, जो वैयक्तिक-जीवन को दूषित करती है । मोह का केन्द्रीय-तत्त्व आसक्ति (राग या तृष्णा) है, जबकि क्षोभ का केन्द्रीय-तत्त्व हिंसा है।
इस प्रकार, जैन-आचार में सम्यक्-चारित्र की दृष्टि से अहिंसा और अनासक्तिये दो केन्द्रीय-सिद्धान्त हैं। एक बाह्य-जगत् या सामाजिक-जीवन में समत्व का संस्थापन करता है, तो दूसरा चैतसिक या आन्तरिक-समत्व को बनाए रखता है। वैचारिक-क्षेत्र में अहिंसा और अनासक्ति मिलकर अनाग्रह या अनेकान्तवाद को जन्म देते हैं । आग्रह वैचारिक-आसक्ति है और एकान्त वैचारिक-हिंसा। अनासक्ति का सिद्धान्त ही अहिंसा से समन्वित हो सामाजिक-जीवन में अपरिग्रह का आदेशप्रस्तुत करता है । संग्रह वैयक्तिकजीवन के सन्दर्भ में आसक्ति और सामाजिक-जीवन के सन्दर्भ में हिंसा है । इस प्रकार, जैन-दर्शन सामाजिक-नैतिकता के तीन केन्द्रीय-सिद्धान्त प्रस्तुत करता है - 1. अहिंसा, 2. अनाग्रह (वैचारिक-सहिष्णुता) और 3. अपरिग्रह (असंग्रह)।
___अब एक दूसरी दृष्टि से विचार करें । मनुष्य के पास मन, वाणी और शरीर-ऐसे तीन साधन हैं, जिनके माध्यम से वह सदाचरण या दुराचरण में प्रवृत्त होता है। शरीर का दुराचरण हिंसा और सदाचरण अहिंसा कहा जाता है। वाणी का दुराचरण आग्रह (वैचारिकअसहिष्णुता) और सदाचरणअनाग्रह (वैचारिक-सहिष्णुता) है, जबकि मन का दुराचरण आसक्ति (ममत्व) और सदाचरण अनासक्ति (अपरिग्रह) है, जैसे-यदि अहिंसा को ही केन्द्रीय-तत्त्व माना जाए, तो अनेकान्त को वैचारिक-अहिंसा और अनासक्ति को मानसिक-अहिंसा (स्वदया) कहा जा सकता है, साथ ही अनासक्ति से प्रतिफलित होने वाला अपरिग्रह का सिद्धान्त सामाजिक एवं आर्थिक-अहिंसा कहा जा सकता है।
यदि साधना के तीन अंग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org