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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
जीवन का साध्य तो इनसे ऊपर उठने में ही है। तीसरी स्थिति में हिंसान तो प्रमाद के कारण होती है और न विवशतावश ही, वरन् सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी हो जाती है। जैनविचारणा के अनुसार, हिंसा की यह तीसरी स्थिति कर्ता की दृष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित रहता है; मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी जाती है, हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी यदि हिंसा हो जाती है, तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं आती है। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी अन्य संकल्प की पूर्ति के लिए की जानेवाली क्रिया के दौरान यदि सावधानी के बावजूद कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है, जैसे-गृहस्थउपासक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस-प्राणी की हिंसा हो जाना, अथवा किसी मुनि के द्वारा पदयात्रा करते हुए त्रसप्राणी की हिंसा हो जाना, तो कर्ता को उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है. क्योंकि उसके मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है, अतः ऐसी हिंसा हिंसा नहीं है। हिंसा की उन स्थितियों में, जिनमें हिंसा की जाती हो या हिंसा करनी पड़ती हो, हिंसा का संकल्प या इरादा अवश्य होता है, यह बात अलग है कि एक अवस्था में हम बिना किसी परिस्थितिगत दबाव के स्वतंत्ररूप में हिंसा का संकल्प करते हैं और दूसरे में हमें विवशता में संकल्प करना होता है। फिर भी पहली अधिक निकृष्ट कोटि की है, क्योंकि आक्रमणात्मक है।
हिंसा के विभिन्न रूप-हिंसक-कर्म की उपर्युक्त तीन अवस्थाओं में यदि हिंसा हो जाने की तीसरी अवस्था को छोड़ दिया जाए, तो हमारे समक्ष हिंसा के दो रूप बचते हैं1. हिंसा की गई हो और 2. हिंसा करनी पड़ी हो। वे दशाएँ, जिनमें हिंसा करनी पड़ती है, दो प्रकार की हैं- 1. रक्षणात्मक और 2. आजीविकात्मक, इसमें दो बातें सम्मिलित हैंजीवन जीने के साधनों का अर्जन और उनका उपभोग।
जैन-दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार रूप माने गए हैं 35
1.संकल्पजा (संकल्पी-हिंसा)-संकल्प या विचारपूर्वक हिंसा करना। यह आक्रमणात्मक-हिंसा है।
2. विरोधजा-स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं स्वत्वों (अधिकारों) के रक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना। यह सुरक्षात्मक-हिंसा है।
3. उद्योगजा-आजीविका-उपार्जन, अर्थात् उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त होने वाली हिंसा । यह उपार्जनात्मक-हिंसा है।
4. आरम्भजा- जीवन-निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा, जैसे-भोजन का पकाना । यह निर्वाहात्मक-हिंसा है।
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