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सामाजिक-धर्म एवं दायित्व
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में उल्लेख है कि महावीर ने माता को अपने प्रति अत्यधिक स्नेह देखकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता जीवित रहेंगे, वे संन्यास नहीं लेंगे। यह माता-पिता के प्रति भक्ति-भावना का सूचक ही है, यद्यपि इस सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा का दृष्टिकोण भिन्न है। जैनधर्म में संन्यास लेने के पहले पारिवारिक-उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन-आगमों में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला कि जहाँ बिना परिजनों की अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो। जैनधर्म में आज भी यह परम्परा अक्षुण्ण रूप से कायम है। कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों एवं समाज (संघ) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता है। माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पति या पत्नी की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक होता है। इसके पीछे मूल भावना यही है कि व्यक्ति सामाजिकउत्तरदायित्वों से निवृत्त होकर ही संन्यास ग्रहण करे। इस बात की पुष्टि अन्तकृत्दशा के निम्न उदाहरण से होती है - जब श्रीकृष्ण को यह ज्ञात हो गया कि द्वारिका का शीघ्र ही विनाश होने वाला है, तो उन्होंने स्पष्ट घोषणा करवा दी कि यदि कोई व्यक्ति संन्यास लेना चाहता है, किन्तु इस कारण से नहीं ले पा रहा हो कि उसके माता-पिता, पुत्र-पुत्री एवं पत्नी का पालन-पोषण कौन करेगा, तो उनके पालन-पोषण का उत्तरदायित्व मैं वहन करूँगा। यद्यपि बुद्ध ने प्रारम्भ में सन्यास के लिए परिजनों की अनुमति को आवश्यक नहीं मानाथा, अतः अनेक युवकों ने परिजनों की अनुमति के बिना ही संघ में प्रवेश ले लिया था, किन्तु आगे चलकर उन्होंने भी यह नियम बना दिया था कि बिना परिजनों की अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जाए। मात्र यही नहीं, उन्होंने यह भी घोषित कर दिया है कि ऋणी, राजकीय-सेवक या सैनिक को भी, जो सामाजिक उत्तरदायित्वों से भागकर भिक्षु बनना चाहते हैं, बिना पूर्व अनुमति के उपसम्पदा प्रदान नहीं की जाए। हिन्दू धर्म भी पितृऋण, अर्थात् सामाजिक-दायित्व को चुकाए बिना संन्यास की अनुमति नहीं देता है। चाहे संन्यास लेने का प्रश्न हो या गृहस्थ-जीवन में ही आत्मसाधना की बात हो, सामाजिकउत्तरदायित्वों को पूर्ण करना आवश्यक माना गया है।
3. विवाह एवं सन्तान-प्राप्ति-जैनधर्म मूलतः निवृत्तिप्रधान है, अतः आगमग्रन्थों में विवाह एवं पति-पत्नी के पारस्परिक-दायित्वों की चर्चा नहीं मिलती है। जैनधर्म हिन्दूधर्म के समान न तो विवाह को अनिवार्य कर्त्तव्य मानता है और न सन्तान-प्राप्ति को, किन्तु ईसा की पाँचवीं शती एवं परवर्ती कथा-साहित्य में इन दायित्वों का उल्लेख है। जैन पौराणिक-साहित्य तो भगवान् ऋषभदेव को विवाह-संस्था का संस्थापक ही बताता है।
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