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सामाजिक- नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
हिंसा के कारण
जैन आचार्यों ने हिंसा के चार कारण माने हैं। 1. राग, 2. द्वेष, 3. कषाय अर्थात् क्रोध, अहंकार, कपट एवं लोभवृत्ति और 4. प्रमाद ।
हिंसा के साधन
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तक हिंसा के मूलसाधनों का प्रश्न है, वे तीन हैं - मन, वचन और शरीर । सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों द्वारा होती या की जाती है । हिंसा और अहिंसा मनोदशा पर निर्भर
जैन- विचारधारा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि एवं वनस्पतिजगत् ही जीवनयुक्त है, वरन् समग्र लोक सूक्ष्म जीवों से व्याप्त है, अतः प्रश्न होता है कि क्या ऐसी स्थिति में कोई पूर्ण अहिंसक हो सकता है ? महाभारत में भी जगत् को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मानकर यही प्रश्न उठाया है। जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्षों के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है, जो इनमें से किसी को कभी नहीं मारता हो, फिर कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इन्द्रियों से नहीं, मात्र अनुमान से ही
जाते हैं - मनुष्य की पलकों के गिरने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं, अर्थात् मर ते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं बचा जा सकता है। 36
प्राचीन युग से ही जैन- विचारकों की दृष्टि भी इस प्रश्न की ओर है। आचार्य भद्रबाहु इस सन्दर्भ में जैन- दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- त्रिकालदर्शी जिनेश्वर भगवान् का कथन है कि अनेकानेक जीव-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में अध्यात्म-विशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाह्य-हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं है। जैन - विचारधारा के अनुसार भी बाह्य-हिंसा से पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं ।
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हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर नहीं है, जितना वह साधक की मनोदशा पर आधारित है। हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आन्तरिक है । हिंसा में संकल्प की प्रमुखता है। भगवतीसूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है । गणधर गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं - हे भगवन्! किसी श्रमणोपासक ने किसी स प्राणी का वध न करने की प्रतिज्ञा ली हो, लेकिन पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो, यदि भूमि खोदते हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाए, तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई ? महावीर कहते हैं कि यह मानना उचित नहीं - उसकी प्रतिज्ञा भंग नहीं हुई। इस प्रकार, संकल्प की उपस्थिति अथवा साधक की मानसिक स्थिति ही हिंसा अहिंसा के विचार में प्रमुख तत्त्व है। परवर्ती जैन- साहित्य में यही धारणा पुष्ट होती रही है। आचार्य भद्रबाहु का कथन है कि सावधानीपूर्वक चलने वाले साधु के पैर के नीचे भी कभी
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